Wednesday, November 28, 2018

मांगलिक दोष कारन और निवारण :-





मांगलिक दोष कारन और निवारण :- 


जन्मांग चक्र में मंगल 1,4,7,8 और 12 भाव में है तो मांगलिक योग होता है ।विद्वानों का मत है कि लग्न शरीर का, चंद्र मन का और शुक्र रति सुख का, प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए लग्न से, चंद्र लग्न से व शुक्र लग्न से प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश में मंगल स्थित होने से मंगल दोष होता है। लग्नस्थ मंगल दोष लग्नस्थ मंगल व्यक्ति को क्रोधी, हठी बनाता है क्योंकि यह उग्र एवं आक्रामक ग्रह है।

लग्नस्थ मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख स्थान पर हो, तो गृहस्थ सुख को बिगाड़ती है।

सप्तम दृष्टि पति के स्थान पर होने से दाम्पत्य सुख को खत्म करती है।

अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि पति-पत्नी दोनों के लिए मारक होती है क्योंकि अष्टम भाव सप्तम से द्वितीय होता है।

चतुर्थ भावस्थ मंगल जातक-जातका के सुख स्थान पर स्थित होता है। इस स्थिति में वह अचल संपत्ति तो देता है किंतु सुख शांति छीन लेता है। मंगल की अशुभ दृष्टि पति के स्थान पर होने से पति से संबंध मधुर नहीं रहता। दोनों के बीच वैचारिक मतभेद बना रहता है। 

चतुर्थ भावस्थ मंगल जीवन साथी को सुख आनंद देने में असमर्थ करता है। मंगल का दोष, क्षीण मंगल दोष माना गया है।

मंगल की दृष्टि सप्तम, दशम व एकादश भाव पर रहती है। ऐसा मंगल पति-पत्नी को पृथक करता है, किंतु यदि पापाक्रांत न हो तो अपनी मारक दृष्टि का संधान नहीं करता। सप्तम भावस्थ मंगल सप्तम स्थान पति-पत्नी का स्थान माना गया है।

सप्तम स्थान का वैवाहिक दृष्टकोण से अत्यधिक महत्व है। इस भाव से दाम्पत्य सुख, विचारों में सामंजस्य, जीवन साथी की आकृति-प्रकृति, रूप-गुण आदि का विचार किया जाता है।

जिस व्यक्ति के सप्तम भाव में मंगल होता है उसके दाम्पत्य सुख में बाधा आती है, जीवन साथी के स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव व स्वभाव में उग्रता रहती है।

 सप्तम भावस्थ मंगल लग्न स्थान, धन स्थान व कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि डालता है, जिससे धन हानि, विकृत संतान, दुर्घटना, चारित्रिक पतन तथा व्यवसाय में अवरोध होता है। मंगल की यह स्थिति दाम्पत्य जीवन में कटुता उत्पन्न कर पति-पत्नी को अलग-अलग रहने को बाध्य करती है।

मेष, सिंह, वृश्चिक का मंगल जातक को दुराग्रही व दंभी बनाता है। शोध से पता चला है कि किसी भी राशि का सप्तम भावस्थ मंगल अपना कुप्रभाव देता ही है। अतः मंगल दोष का परिहार कर लेना चाहिए।

सप्तम भावस्थ मंगल जातक जातका को प्रबल मंगली बनाता है। ऐसे मंगल को कांतघाती नाम भी दिया गया है। ऐसा मंगल मृत्यु तुल्य कष्ट देता है या तलाक की स्थिति उत्पन्न कर पति पत्नी को अलग कर देता है।

अष्टम भावस्थ मंगल मंगलदोष की पराकाष्ठा है। अष्टम भाव से हमें जातक के जीवन के विघ्न, बाधा, अनिष्ट, आयु, विषाद, मृत्यु, मृत्यु का कारण एवं मृत्यु का स्थान ज्ञात होता है। स्त्री की जन्म कुंडली में यह स्थान सौभाग्य सूचक माना जाता है। अष्टम भावस्थ मंगल संपूर्ण वैवाहिक सुख का नाश करता है ।

ऋषि-मुनियों व ज्योर्तिविदों ने एक मत से मंगल की इस स्थिति को अत्यंत अशुभ बताया है। इस स्थिति के फलस्वरूप जातक जातका सदैव रोगग्रस्त रहते हैं। फलतः दाम्पत्य सुख का नाश होता है और वे अल्पायु एवं दरिद्र होते हैं।

शास्त्रकारों का मत है


” शुभास्तस्व किं खेचरा कुर्यन्ये विधाने पिचेदष्टमे भूमिसुनूः “

अर्थात मंगल अष्टम भावस्थ हो, तो जातक की कुंडली में शुभ स्थान में बैठे शुभ ग्रह भी शुभ फल नहीं देते। दाम्पत्य जीवन कष्टमय होता है। ऐसे मंगल दोष का परिहार होना बहुत आवश्यक है।

अष्टम भावस्थ मंगल वृष, कन्या, मकर का हो, तो कुछ शुभ होता है, मकर का मंगल संतानहीन बनाता है।
मंगल यदि कर्क, वृश्चिक, मीन का हो, तो जातक की जल में डूबकर मृत्यु का डर रहता है।

उसे परिवार का तिरस्कार सहना पड़ता है।
मंगल द्वादश भाव से भोग, त्याग, शय्या सुख, निद्रा, यात्रा, व्यय, क्रय शक्ति और मोक्ष का विचार किया जाता है।

मंगल द्वादश भावस्थ हो, तो जातक-जातका मंगल दोष से ग्रस्त होते हैं।

फलतः पति-पत्नी में आपस में सामंजस्य नहीं रहता। जीवन टूट कर बिखर जाता है। जातक क्रोधी, कामुक, और दुष्कर्मी हो जाता है। उसे धन का अभाव हो जाता है, उसकी दुर्घटना होती है, वह रक्त विकृति, गुप्त रोग आदि व्याधियों से पीड़ित होता है। वह पत्नी की हत्या भी कर सकता है।

द्वादश मंगल की पूर्ण दृष्टि तृतीय, षष्ठ व सप्तम स्थान पर हो, तो जातक की बंधुओं से शत्रुता होती है और वह रोग से ग्रस्त होता है।

मंगल दोष परिहार:-


 सर्वमान्य नियम यह है कि मंगल दोष से ग्रस्त कन्या का विवाह मंगल दोष से ग्रस्त वर से किया जाए, तो मंगल दोष का परिहार हो जाता है। कन्या की कुंडली में मंगल दोष हो और वर की कुंडली में उसी स्थान पर शनि हो, तो मंगल दोष का परिहार स्वयमेव हो जाता है।

यदि जन्मांक में मंगल दोष हो किंतु शनि मंगल पर दृष्टिपात करे, तो मंगल दोष का परिहार होता है।
मकर लग्न में मकर राशि का मंगल व सप्तम स्थान में कर्क राशि का चंद्र हो, तो मंगल दोष नहीं होता।

कुछ ज्योतिर्विद कहते हैं कि मंगल गुरु से युत या दृष्ट हो, तो दोष प्रभावहीन होता है। किंतु अध्ययन व शोध के आधार पर ज्ञात हुआ है कि गुरु की राशि में स्थित मंगल अत्यंत कष्टकारक होता है और पापाक्रांत मंगल अपना कुप्रभाव डालता ही है। 

मंगल दोष से दूषित जातकों का जन्मपत्री मिलान करके व मंगल दोष का यथासंभव परिहार करके विवाह करें, तो दाम्पत्य जीवन सुखद होगा है।

वृश्चिक राशि में न्यून किंतु मेष राशि में मंगल प्रबल घातक होता है।

मंगल दोष परिहार के कुछ अन्य नियम इस प्रकार है।
यदि मंगल चतुर्थ अथवा सप्तम भावस्थ हो किंतु किसी क्रूर ग्रह से युत या दृष्ट न हो और इन भावों में मेष, कर्क, वृश्चिक अथवा मकर राशि हो, तो मंगल दोष का परिहार हो जाता है।

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