Monday, August 31, 2015

ॐ क्रीं भ्रं बटुकाय आपदुद्धारणाय भ्रं क्रीं फट्
(om kreem bhram batukaay aapaduddhaaranaay bhram kreem phat
महर्षि कालाग्नि रूद्र प्रणीत "महाकाल बटुक भैरव" साधना









भगवान भैरव को शब्दमय रूप में वर्णित करने का कारण सिर्फ इतना है कि अन्य देव कि अपेक्षा पूरे ब्रहांड में सर्वत्र विद्दमान हैं, जिस प्रकार शब्द को किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं बाँधा जा सकता उसी प्रकार भैरव भी किसी भी विघ्न या बाधा को सहन नहीं कर पाते और उसे विध्वंश कर साधक को पूर्ण अभय प्रदान करते हैं,
उनकी इसी शक्ति को साधक अनेक रूपों वर्णित कर साधनाओं के द्वारा प्राप्त कर अपने जीवन के दुःख और कष्टों से मुक्ति प्राप्त करते हैं,
वस्तुतः भैरव साधना भगवान शिव कि ही साधना है क्योंकि भैरव तो शिव का ही स्वरुप है उनका ही एक नर्तनशील स्वरुप. भैरव भी शिव की ही तरह अत्यन्त भोले हैं, एक तरफ अत्यधिक प्रचंड स्वरूप जो पल भर में प्रलय ला दे और एक तरफ इतने दयालु की आपने भक्त को सब कुछ दे डाले,
इसके बाद भी समाज में भैरव के नाम का इतना भय कि नाम सुनकर ही लोग काँप जाते हैं, उससे तंत्र मन्त्र या जादू टोने से जोड़ने लगते हैं,
भैरव की उन अनेक साधनाओं में एक साधना है महर्षि कालाग्नि रूद्र प्रणीत "महाकाल बटुक भैरव" साधना. इस साधना की विशेषता है की ये भगवान् महाकाल भैरव के तीक्ष्ण स्वरुप के बटुक रूप की साधना है जो तीव्रता के साथ साधक को सौम्यता का भी अनुभव कराती है और जीवन के सभी अभाव,प्रकट वा गुप्त शत्रुओं का समूल निवारण करती है.विपन्नता,गुप्त शत्रु,ऋण,मनोकामना पूर्ती और भगवान् भैरव की कृपा प्राप्ति,इस 11 दिवसीय साधना प्रयोग से संभव है. बहुधा हम प्रयोग की तीव्रता को तब तक नहीं समझ पाते हैं जब तक की स्वयं उसे संपन्न ना कर लें,इस प्रयोग को आप करिए और परिणाम बताइयेगा.
ये प्रयोग रविवार की मध्य रात्रि को संपन्न करना होता है.स्नान आदि कृत्य से निवृत्त्य होकर पीले वस्त्र धारण कर दक्षिण मुख होकर बैठ जाएँ.सदगुरुदेव और भगवान् गणपति का पंचोपचार पूजन और मंत्र का सामर्थ्यानुसार जप कर लें तत्पश्चात सामने बाजोट पर पीला वस्त्र बिछा लें,जिस के ऊपर काजल और कुमकुम मिश्रित कर ऊपर चित्र में दिया यन्त्र बनाना है और यन्त्र के मध्य में काले तिलों की ढेरी बनाकर चौमुहा दीपक प्रज्वलित कर उसका पंचोपचार पूजन करना है,पूजन में नैवेद्य उड़द के बड़े और दही का अर्पित करना है .पुष्प गेंदे के या रक्त वर्णीय हो तो बेहतर है.अब अपनी मनोकामना पूर्ती का संकल्प लें.और उसके बाद विनियोग करें.
अस्य महाकाल वटुक भैरव मंत्रस्य कालाग्नि रूद्र ऋषिः अनुष्टुप छंद आपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवता ह्रीं बीजं भैरवी वल्लभ शक्तिः दण्डपाणि कीलक सर्वाभीष्ट प्राप्तयर्थे समस्तापन्निवाराणार्थे जपे विनियोगः
इसके बाद न्यास क्रम को संपन्न करें.
ऋष्यादिन्यास –
कालाग्नि रूद्र ऋषये नमः शिरसि
अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे
आपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवताये नमः हृदये
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये
भैरवी वल्लभ शक्तये नमः पादयो
सर्वाभीष्ट प्राप्तयर्थे समस्तापन्निवाराणार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे
करन्यास -
ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः
ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः
ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः
ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः
ह्रौं कनिष्टकाभ्यां नमः
ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः
अङ्गन्यास-
ह्रां हृदयाय नमः
ह्रीं शिरसे स्वाहा
ह्रूं शिखायै वषट्
ह्रैं कवचाय हूम
ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्
ह्रः अस्त्राय फट्
अब हाथ में कुमकुम मिश्रित अक्षत लेकर निम्न मंत्र का ११ बार उच्चारण करते हुए ध्यान करें और उन अक्षतों को दीप के समक्ष अर्पित कर दें.
नील जीमूत संकाशो जटिलो रक्त लोचनः
दंष्ट्रा कराल वदन: सर्प यज्ञोपवीतवान |
दंष्ट्रायुधालंकृतश्च कपाल स्रग विभूषितः
हस्त न्यस्त किरीटीको भस्म भूषित विग्रह: ||
इसके बाद निम्न मूल मंत्र की रुद्राक्ष,मूंगा या काले हकीक माला से ११ माला जप करें
ॐ ह्रीं वटुकाय क्ष्रौं क्ष्रौं आपदुद्धारणाय कुरु कुरु वटुकाय ह्रीं वटुकाय स्वाहा ||
Om hreeng vatukaay kshroum kshroum aapduddhaarnaay kuru kuru vatukaay hreeng vatukaay swaha ||
प्रयोग समाप्त होने पर दूसरे दिन आप नैवेद्य,पीला कपडा और दीपक को किसी सुनसान जगह पर रख दें और उसके चारो और लोटे से पानी का गोल घेरा बनाकर और प्रणाम कर वापस लौट जाएँ तथा मुड़कर ना देखें.
ये प्रयोग अनुभूत है,आपको क्या अनुभव होंगे ये आप खुद बताइयेगा,मैंने उसे यहाँ नहीं लिखा है. तत्व विशेष के कारण हर व्यक्ति का नुभव दूसरे से प्रथक होता है. गुरु आपको सफलता दें और आप इन प्रयोगों की महत्ता समझ कर गिडगिडाहट भरा जीवन छोड़कर अपना सर्वस्व पायें यही कामना मैं करत हूँ.
महाविद्या आश्रम
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खुद से खुद के मिलन हेतु – काल भैरव साधना)





आपने यह तथ्य मन से संबंधित लेख में पढ़ा है किन्तु यह तथ्य मात्र पढ़ने के लिए नहीं लिखा गया था, अपितु इसके बहुत गहन अर्थ हैं. मैंने अपने हर लेख में मेरे मास्टर द्वारा समझाई गयी एक बात को हमेशा और बार – बार दोहराया है कि शून्य या ब्रह्मांड एक ऐसे साम्राज्य का नाम है जिसमें असंभव जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं है.....वहाँ हर वो चीज सम्भव है जो सामान्य बातों में सोच के भी परे हो.
“ संभव “ शब्द के संभवतः हाजारों करोड़ों अर्थ हो सकते हैं क्योंकि कौन कैसी मानसिकता के साथ इस शब्द की व्याख्या करता है यह निर्भर करता है इस बात पर कि हर एक से दूसरे इंसान के बीच विचारों का मतभेद कितना गहरा है. किन्तु तंत्र में इस शब्द का एक ही अर्थ है......” सक्षम बनो तांकि काल का पहिया भी तुम्हारे हिसाब से चले “..... और यही बात मुझे मेरे मास्टर हमेशा समझाते हैं कि तंत्र मूर्खों की अपेक्षाओं पर नहीं चलता और जिसने काल का वरण कर लिया उसके लिए करने को कुछ और शेष नहीं रह जाता. हम सब जानते हैं कि दशानन रावण कालजयी थे क्योंकि उन्होंने अपने काल को अपने पलंग के खूंटे से बाँध रखा था....पर हमने कभी यह जानने की चेष्टा नहीं की कि उन्होंने ऐसा किया कैसे था....वो यह सब इसलिए संभव कर पाए थे क्योंकि वो एक श्रेष्ठ तांत्रिक थे....और उन्होंने अपने अंदर के काल पुरुष पर विजय प्राप्त कर ली थी.
हम सब के अंदर एक काल पुरुष होता है जिससे हम शिव के प्रतिरूप काल भैरव के रूप में परिचित हैं. भैरव कुल ५२ होते हैं पर इनमें से सबसे श्रेष्ठ काल भैरव हैं. इसमें कोई दो-राय नहीं है कि हर भैरव एक विशेष शक्ति के अधिपति हैं पर काल भैरव को इन सब भैरवों के स्वामित्व का सम्मान प्राप्त है और ज़ाहिर है यदि यह स्वामी है तो हर परिस्थिति में अपने साधक को अधिक से अधिकतम सुख और फल प्रदान करने वाले होंगे, इसीलिए इनकी साधना को जीवन की श्रेष्टतम साधना कहा गया है. वैसे तो हर साधना का हमारे जीवन में विशेष स्थान है पर कुबेर साधना, दुर्गा साधना और काल भैरव साधना को जीवन की धरोहर माना गया है.
अब सबसे बड़ी बात यह है कि भैरव नाम सुनते ही मन में एक अजीब से भय का संचार होने लगता है, भयंकर से भयंकर आकृति आँखों के सामने उभरने लगती है, गुस्से से भरी लाल सुर्ख आँखें, सियाह काला रंग, लंबा – चौड़ा डील डोल और ना-जाने क्या, क्या??? इसके विपरीत एक सच यह भी है जहाँ भय हो वहाँ साधना नहीं हो सकती और साक्षत्कार तो दूर की बात है.
किन्तु जहाँ समस्या वहाँ समाधान....तो काल भैरव की साधना से सम्बंधित डर से मुक्ति पाने के लिए हमें इनको समझना पड़ेगा. जैसे सिक्के के दो पहलु होते हैं वैसे ही काल और भैरव एक सिक्के के दो पक्ष हैं. काल का अर्थ है समय और भैरव का अर्थ है वो पुरुष जिसमें काल पर विजय प्राप्त करने की क्षमता हो. अब यहाँ काल का अर्थ सिर्फ मृत्यु नहीं है अपितु हर उस वस्तु से है जो हमारे मानसिक सुखों को क्षीण करने में सक्षम हो. अब यह समस्या शारीरिक, आंतरिक, मानसिक, और रुपये पैसे से संबंधित कैसी भी हो सकती है.
अब जो काल पुरुष होगा उसे इनमें से किसी समस्या का भय नहीं होगा क्योंकि समस्या उसके सामने ठहर ही नहीं सकती. देवता और मनुष्यों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि देवताओं की सीमाएं होती है जैसे अग्नि देव मात्र अग्नि से संबंधित कार्य कर सकते हैं उनका वरुण देव से कोई लेना देना नहीं, इसी प्रकार काम देव का इन दोने और अन्य देवताओं से कोई सरोकार नहीं, जबकि इसके विपरीत केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी हैं जिसके अंदर पूरा ब्रह्मांड समाहित है, जिसकी किसी भी कार्य को करने की कोई सीमा नहीं बस जरूरत है तो उसे अपने अंदर के पुरुष को जगाने की और यह तभी संभव है जब हमने हमारे ही अंदर के ब्रह्मांड को अर्थात काल को जीत लिया हो.
ऐसा ही एक साधना विधान यहाँ दे रह हूँ जो करने में बेहद सरल तो है ही पर इस विधान को करने के बाद के नतीजे आपको आश्चर्यचकित कर देंगे. इस साधना को करने के बाद ना केवल आपमें आत्म विश्वास बढ़ेगा बल्कि जटिल से जटिल साधनाएं भी आप बिना किसी भय और समस्या के कर पायेंगे. इस साधना को करने के पश्चात काल साधना करना सहज हो जाता है जो आपको काल ज्ञाता बनाने में सक्षम है अर्थात आप भूत, भविष्य, वर्तमान सब देखने में सामर्थ्यवान हो जाते हैं. आँखों में एक ऐसी तीव्रता आ जाती है कि हठी से हठी मनुष्य भी आपके समक्ष घुटने टेक देता है.
इसके लिए आपको बस यह एक छोटा सा विधान करना है. किसी भी रविवार मध्यरात्रि काल में नहा धोकर अपने पूजा के स्थान में पीले वस्त्र पहन कर पीले आसान पर बैठ कर आपको निम्न मंत्र का मात्र ११ माला मंत्र जाप करना है.
विनियोगः 

अस्य महाकाल कालभैरवाय  मंत्रस्य कालाग्नि रूद्र ऋषिः अनुष्टुप छंद कालभैरवाय देवता ह्रीं बीजं भैरवी वल्लभ शक्तिः दण्डपाणि कीलक सर्वाभीष्ट प्राप्तयर्थे समस्तापन्निवाराणार्थे जपे विनियोगः  

इसके बाद न्यास क्रम को संपन्न करें.

ऋष्यादिन्यास –

कालाग्नि रूद्र ऋषये नमः शिरसि
अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे
आपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवताये नमः हृदये
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये
भैरवी वल्लभ शक्तये नमः पादयो
सर्वाभीष्ट प्राप्तयर्थे समस्तापन्निवाराणार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे

करन्यास -

 ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः
 ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः
 ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः
 ह्रैं  अनामिकाभ्यां नमः
 ह्रौं  कनिष्टकाभ्यां नमः
 ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः

अङ्गन्यास-  

ह्रां हृदयाय नमः
ह्रीं शिरसे स्वाहा
ह्रूं शिखायै वषट्
ह्रैं कवचाय हूम
ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्
ह्रः अस्त्राय फट्

अब हाथ में कुमकुम मिश्रित अक्षत लेकर निम्न मंत्र का ११ बार उच्चारण करते हुए ध्यान करें और उन अक्षतों को दीप के समक्ष अर्पित कर दें.

नील जीमूत संकाशो जटिलो रक्त लोचनः 
दंष्ट्रा कराल वदन: सर्प यज्ञोपवीतवान |
दंष्ट्रायुधालंकृतश्च कपाल स्रग विभूषितः 
हस्त न्यस्त किरीटीको भस्म भूषित विग्रह: ||








मंत्र -



॥ ऊं भ्रं कालभैरवाय फ़ट ॥


|| ओम क्रीं भ्रं क्लीं भ्रं ऐं भ्रं भैरवाय भ्रं ऐं भ्रं क्लीं भ्रं क्रीं फट ||
OM KREEM BHRAM KLEEM BHRAM AING BHRAM BHAIRAVAAY BHRAM AING BHRAM KLEEM BHRAM KREEM PHAT



साधना को करते समय आपकी दिशा पश्चिम होगी और दीपक तिल के तेल का जलाना है. किसी भी साधना में सफलता हेतु गुरु का और विघ्नहर्ता भगवान गणपति का आशीर्वाद अति अनिवार्य है इसलिए भागवान गणपति की अर्चना करने के पश्चात ही साधना प्रारंभ करें और मूल मंत्र की माला शुरू करने से पहले कम से कम गुरुमंत्र की ११ माला का जाप जरूर कर लें. मास्टर द्वारा दिए गए विधान में यदि आपने कोई माला सिद्ध की हो तो आप उसका उपयोग करें अन्यथा गुरु माला जिससे आप अपनी नित्य साधना करते हैं उसी का उपयोग कर सकते हैं. साधना करते समय आपका वक्षस्थल अनावर्त होना चाहिए और यदि कोई गुरु बहन इस विधान को सम्पन्न कर रही है तो उन पर यह नियम लागू नहीं होता. साधना के पश्चात अपना पूरा मंत्र जाप गुरु को समर्पित कर दें और एक जरूरी बात हो सकता है की साधना के दौरान आपका शरीर बहुत जादा गर्म हो जाए या ऐसा लगे जैसे गर्मी के कारण मितली आ रही है तो घबरायें नहीं, जब आपके अंदर उर्जा का प्रस्फुटन होता है तो ऐसा होना स्वाभाविक है. अपनी साधना पर केंद्रित रहें थोड़ी देर बाद स्थिति अपने आप सामान्य हो जायेगी.
खुद इस अद्भुत विधान को करके देखें और अपने सामान्य जीवन में बदलाव का आनंद लें, पर एक बात का ध्यान जरूर रखें किसी भी साधना में ऐसा कभी नहीं होता है की आज साधना की और कल नतीजा आपके सामने आ जायेगा, इसके लिए आपको अपने दैनिक जीवन पर बड़ी बारीकी से नज़र रखनी पड़ती है क्योकि बड़े बदलाव की शुरुआत छोटे छोटे परिवर्तनों से होती है.
(नोट – कृपा साधना करने के पश्चात हर दिन या कुछ दिनों के अंतराल से की गयी साधना की न्यूनतम एक माला या अधिकतम अपनी क्षमता के अनुसार जितनी चाहें उतनी माला मंत्र जाप कर लें जिससे की यह मंत्र सदा सर्वदा आपको सिद्ध रहे.)
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शुद्ध और अशुद्ध बगलामुखी मन्त्र





इंटरनेट पर कई जगह पर मैंने अशुद्ध रूप से बगलामुखी मंत्र को लिखा पाया है | यदि आप इस मन्त्र का सही उच्चारण नहीं जानते हैं तो यह लेख आपके लिए ही है | इस मन्त्र के द्वारा शत्रु को शांत किया जा सकता है | इस मन्त्र से मुकदमा जीता जा सकता है | आधिदैविक और आधिभौतिक समस्याओं से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है | बंधन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है अर्थात यदि कोई बेकसूर व्यक्ति जेल में है या जेल जाने के आसार हैं तो इस साधना से अवश्य लाभ हो सकता है | भूत प्रेत और जादू टोन के आक्रमण से बचा जा सकता है | बगलामुखी साधना करने वाला व्यक्ति प्रभावशाली बनता है | उसे डर नहीं लगता | किसी प्रकार की चिंता हो तो वह भी कुछ समय के बाद दूर हो जाती है |
बगलामुखी मंत्र के क्या लाभ है इस विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है | आइये अब जानते हैं कि बगलामुखी मन्त्र का सही उच्चारण क्या है |
ॐ ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानाम वाचं मखम पदम् स्तम्भय |
जिव्हां कीलय बुद्धिम विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा |
बगलामुखी मन्त्र के आदि में ह्री या ह्लीं दोनों में से किसी भी बीज का प्रयोग किया जा सकता है | ह्रीं तब लगायें जब आपका धन किसी शत्रु ने हड़प लिया है और ह्लीं का प्रयोग शत्रु को पूरी तरह से परास्त करने के लिए करें | इससे वशीकरण की अद्भुत शक्ति मिलती है | परन्तु यह सब एक दो दिन में नहीं होता | इसके लिए कम से कम ४० दिन तक नियम से जप करना पड़ता है | साधना शुरू करने के लिए संकल्प लेना पड़ता है | सभी नियमों की जानकारी के बिना इस साधना को न करें | अन्यथा साधना समाप्त करने के कुछ दिन बाद आप स्वयं को फिर से शत्रुओं से घिरा पाएंगे | माँ बगलामुखी भक्त से श्रद्धा और विशवास चाहती हैं | यदि आपको पूरी श्रद्धा है तो आपकी साधना में नियमों का समावेश रहेगा |
क्या हैं नियम जानने के लिए पढ़ें बगलामुखी संकल्प |
विशेष परिस्थितियों में बगलामुखी मन्त्र का प्रयोग |
कभी कभी शत्रु का प्रकोप अधिक होने से समय का अभाव रहता है | हाल ही में एक महोदय ने फोन करके बताया की उसका जमीन जायदाद के मामले में किसी से विवाद हो गया है | वे लोग अत्यंत शक्तिशाली है और एक बार हमला भी कर चुके हैं |
दूर होने के कारण संभव नहीं की वह व्यक्ति बगलामुखी साधना के लिए गुडगाव से अम्बाला आ जाए | ऐसी अवस्था में यदि बगलामुखी मन्त्र को नीचे लिखे अनुसार पढ़ा जाए तो तुरंत सुरक्षा मिलती है |
ॐ ह्लीं बगलामुखी अमुक (शत्रु का नाम लें ) दुष्टानाम वाचं मुखम पदम स्तम्भय स्तम्भय |
जिव्हां कीलय कीलय बुद्धिम विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ||
इस मन्त्र में शत्रु का नाम लेकर कम से कम १००० बार एक दिन में जप करें | शत्रु या तो किसी मुसीबत में फंस जाएगा या फिर कोई भारी गलती करके स्वयं फंस जाएगा | ऐसा मैंने अनुभव में देखा है |
सम्पुट युक्त बगलामुखी मन्त्र |
सम्पुट मन्त्र की शक्ति को दोगुना करने के लिए किया जाता है | किसी भी मन्त्र की शक्ति को सम्पुट द्वारा बढ़ने के लिए साधक को पहले बिना सम्पुट से निश्चित संख्या में जप करना चाहिए | उसके बाद ही सम्पुट लगाया जा सकता है | मन्त्र के आदि में और अंत में बीज लगाने से मन्त्र सम्पुट युक्त हो जाता है |
इस गुप्त सम्पुट युक्त बगलामुखी मन्त्र का उल्लेख कही किया नहीं जाता | यह वर्जित है | इसे तो गुरु के मुख से ही लेना पड़ता है | और दिया उसी को जाता है जो सुपात्र हो | अन्यथा मन्त्र का दुरूपयोग होने पर पाप का भागीदार बनना पड़ता है |
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गोरख शाबर गायत्री मन्त्र





“ॐ गुरुजी, सत नमः आदेश। सत गुरुजी को आदेश। ॐकारे शिव-रुपी, मध्याह्ने हंस-रुपी, सन्ध्यायां साधु-रुपी। हंस, परमहंस दो अक्षर। गुरु तो गोरक्ष, काया तो गायत्री। ॐ ब्रह्म, सोऽहं शक्ति, शून्य माता, अवगत पिता, विहंगम जात, अभय पन्थ, सूक्ष्म-वेद, असंख्य शाखा, अनन्त प्रवर, निरञ्जन गोत्र, त्रिकुटी क्षेत्र, जुगति जोग, जल-स्वरुप रुद्र-वर्ण। सर्व-देव ध्यायते। आए श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथ। ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्महे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्षः प्रचोदयात्। ॐ इतना गोरख-गायत्री-जाप सम्पूर्ण भया। गंगा गोदावरी त्र्यम्बक-क्षेत्र कोलाञ्चल अनुपान शिला पर सिद्धासन बैठ। नव-नाथ, चौरासी सिद्ध, अनन्त-कोटि-सिद्ध-मध्ये श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथजी कथ पढ़, जप के सुनाया। सिद्धो गुरुवरो, आदेश-आदेश।।”
साधन-विधि एवं प्रयोगः-
प्रतिदिन गोरखनाथ जी की प्रतिमा का पंचोपचार से पूजनकर २१, २७, ५१ या १०८ जप करें। नित्य जप से भगवान् गोरखनाथ की कृपा मिलती है, जिससे साधक और उसका परिवार सदा सुखी रहता है। बाधाएँ स्वतः दूर हो जाती है। सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है और अन्त में परम पद प्राप्त होता है।
महाविद्या आश्रम
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“इस स्थान पर दिये जा रहे प्रयोगों का अपना आध्यात्मिक महत्त्व है, जो आस्तिक अर्थात् ईश्वर में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये है। गुरु का आध्यात्मिक जगत में सर्वोपरि स्थान है, इसलिये किसी भी प्रयोग को करने से पुर्व गुरु का अथवा विज्ञजन का आशीर्वाद तथा मार्गदर्शन नितांत आवश्यक है। इससे न केवल साधना में सिद्धि शीघ्र मिलती है, अपितु अज्ञात् सहायता भी मिलती है। इसी क्रम में यहां दिये जा रहे प्रयोग पूर्णतया निरापद है, लेकिन फिर भी किसी विज्ञजन अथवा गुरुजन से पूर्व अनुमति श्रेयष्कर रहेगी। प्रयोग सम्बन्धित किसी भी शंका के लिये निःसंकोच राज गुरु जी
से सम्पर्क किया जा सकता है। शंका-निवारण का पूर्ण प्रयास किया जायेगा।“
राज गुरु जी
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जानिये क्या है ये अर्थववेद





अथर्ववेद संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात मन्त्र भाग है । इसमें देवताओं की स्तुति के साथ जादू, चमत्कार, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के रज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता हैः
यस्य राज्ञो जनपदे अथर्वा शान्तिपारगः।
निवसत्यपि तद्राराष्ट्रं वर्धतेनिरुपद्रवम् ।। (अथर्व०-१/३२/३)।
भूगोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्यचिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय, प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व अत्यन्त सराहनीय है। अथर्ववेद में शान्ति-पुष्टि तथा अभिचारिक दोनों तरह के अनुष्ठन वर्णित हैं। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। चरणव्युह ग्रंथ के अनुसार अथर्व संहिता की नौ शाखाएँ- १.पैपल, २. दान्त, ३. प्रदान्त, ४. स्नात, ५. सौल, ६. ब्रह्मदाबल, ७. शौनक, ८. देवदर्शत और ९. चरणविद्य बतलाई गई हैं। वर्तमान में केवल दो- १.पिप्पलाद संहिता तथा २. शौनक संहिता ही उपलब्ध है। जिसमें से पिप्लाद संहिता ही उपलब्ध हो पाती है। वैदिकविद्वानों के अनुसार ७५९ सूक्त ही प्राप्त होते हैं। सामान्यतः अथर्ववेद में ६००० मन्त्र होने का मिलता है परन्तु किसी-किसी में ५९८७ या ५९७७ मन्त्र ही मिलते हैं।
अथर्ववेद के विषय में कुछ मुख्य तथ्य निम्नलिखित है-
अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई।
इसमें ॠग्वेद और सामवेद से भी मन्त्र लिये गये हैं।
जादू से सम्बन्धित मन्त्र-तन्त्र, राक्षस, पिशाच, आदि भयानक शक्तियाँ अथर्ववेद के महत्वपूर्ण विषय हैं।
इसमें भूत-प्रेत, जादू-टोने आदि के मन्त्र हैं।
ॠग्वेद के उच्च कोटि के देवताओं को इस वेद में गौण स्थान प्राप्त हुआ है।
धर्म के इतिहास की दृष्टि से ॠग्वेद और अथर्ववेद दोनों का बड़ा ही मूल्य है।
अथर्ववेद से स्पष्ट है कि कालान्तर में आर्यों में प्रकृति-पूजा की उपेक्षा हो गयी थी और प्रेत-आत्माओं व तन्त्र-मन्त्र में विश्वास किया जाने लगा था।
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भाग्योदय हेतु श्रीमहा-लक्ष्मी-साधना
भाग्योदय हेतु श्रीमहा-लक्ष्मी की तीन मास की सरल, व्यय रहित साधना है। यह साधना कभी भी ब्राह्म मुहूर्त्त पर प्रारम्भ की जा सकती है। ‘दीपावली’ जैसे महा्पर्व पर यदि यह प्रारम्भ की जाए, तो अति उत्तम।
‘साधना’ हेतु सर्व-प्रथम स्नान आदि के बाद यथा-शक्ति (कम-से-कम १०८ बार)
“ॐ ह्रीं सूर्याय नमः” मन्त्र का जप करें।
फिर ‘पूहा-स्थान’ में कुल-देवताओं का पूजन कर भगवती श्रीमहा-लक्ष्मी के चित्र या मूर्त्ति का पूजन करे। पूजन में ‘कुंकुम’ महत्त्वपूर्ण है, इसे अवश्य चढ़ाए।
पूजन के पश्चात् माँ की कृपा-प्राप्ति हेतु मन-ही-मन ‘संकल्प करे। फिर विश्व-विख्यात “श्री-सूक्त” का १५ बार पाठ करे। इस प्रकार ‘तीन मास’ उपासना करे। बाद में, नित्य एक बार पाठ करे। विशेष पर्वो पर भगवती का सहस्त्र-नामावली से सांय-काल ‘कुंकुमार्चन’ करे। अनुष्ठान काल में ही अद्भुत परिणाम दिखाई देते हैं। अनुष्ठान पूरा होने पर “भाग्योदय” होता है।
।।श्री सूक्त।।
ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।
तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।
अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।
उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे।।
क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।।
गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।
कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।
तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।।
सुख-शान्ति-दायक महा-लक्ष्मी महा-मन्त्र प्रयोग
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीपञ्च-दश-ऋचस्य श्री-सूक्तस्य श्रीआनन्द-कर्दम-चिक्लीतेन्दिरा-सुता ऋषयः, अनुष्टुप्-वृहति-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दांसि, श्रीमहालक्ष्मी देवताः, श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे राज-वश्यार्थे सर्व-स्त्री-पुरुष-वश्यार्थे महा-मन्त्र-
जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः-
श्रीआनन्द-कर्दम-चिक्लीतेन्दिरा-सुता ऋषिभ्यो नमः शिरसि। अनुष्टुप्-वृहति-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः मुखे। श्रीमहालक्ष्मी देवताय नमः हृदि। श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे राज-वश्यार्थे सर्व-स्त्री-पुरुष-वश्यार्थे महा-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
कर-न्यासः-
ॐ हिरण्मय्यै अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ चन्द्रायै तर्जनीभ्यां स्वाहा। ॐ रजत-स्त्रजायै मध्यमाभ्यां वषट्। ॐ हिरण्य-स्त्रजायै अनामिकाभ्यां हुं। ॐ हिरण्य-स्त्रक्षायै कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। ॐ हिरण्य-वर्णायै कर-तल-करपृष्ठाभ्यां फट्।
अंग-न्यासः-
ॐ हिरण्मय्यै नमः हृदयाय नमः। ॐ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा। ॐ रजत-स्त्रजायै नमः शिखायै वषट्। ॐ हिरण्य-स्त्रजायै नमः कवचाय हुं। ॐ हिरण्य-स्त्रक्षायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्। ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट्।
ध्यानः-
ॐ अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैर्भवतु-
भुवन-माता सततं श्रीः श्रियै नः।।
मानस-पूजनः-
ॐ लं पृथ्वी तत्त्वात्वकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ हं आकाश तत्त्वात्वकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ यं वायु तत्त्वात्वकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये घ्रापयामि नमः।
ॐ रं अग्नि तत्त्वात्वकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये दर्शयामि नमः।
ॐ वं जल तत्त्वात्वकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये निवेदयामि नमः।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्वकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
।।महा-मन्त्र।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।१
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।३
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः।
ॐ दुर्गे, स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।४
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः।
ॐ दुर्गे, स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।५
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्ति वृद्धिं ददातु मे।।७
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।।८
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।।९
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।।११
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।१३
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।१४
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।।१५
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
।।स्तुति-पाठ।।
।।ॐ नमो नमः।।
पद्मानने पद्मिनि पद्म-हस्ते पद्म-प्रिये पद्म-दलायताक्षि।
विश्वे-प्रिये विष्णु-मनोनुकूले, त्वत्-पाद-पद्मं मयि सन्निधत्स्व।।
पद्मानने पद्म-उरु, पद्माक्षी पद्म-सम्भवे।
त्वन्मा भजस्व पद्माक्षि, येन सौख्यं लभाम्यहम्।।
अश्व-दायि च गो-दायि, धनदायै महा-धने।
धनं मे जुषतां देवि, सर्व-कामांश्च देहि मे।।
पुत्र-पौत्र-धन-धान्यं, हस्त्यश्वादि-गवे रथम्।
प्रजानां भवति मातः, अयुष्मन्तं करोतु माम्।।
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रा वृहस्पतिर्वरुणो धनमश्नुते।।
वैनतेय सोमं पिब, सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो, मह्मं ददातु सोमिनि।।
न क्रोधो न च मात्सर्यं, न लोभो नाशुभा मतीः।
भवन्ती कृत-पुण्यानां, भक्तानां श्री-सूक्तं जपेत्।।
विधिः-
महा-मन्त्र के तीन पाठ नित्य करे। ‘पाठ’ के बाद कमल के श्वेत फूल, तिल, मधु, घी, शक्कर, बेल-गूदा मिलाकर बेल की लकड़ी से नित्य १०८ बार हवन करे। ऐसा ६८ दिन करे। इससे मन-वाञ्छित धन प्राप्त होता है।
हवन-मन्त्रः-
“ॐ श्रीं ह्रीं महा-लक्ष्म्यै सर्वाभीष्ट सिद्धिदायै स्वाहा।”
किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए इस नंबर पर फ़ोन करें :
मोबाइल नं. : - 09958417249
व्हाट्सप्प न०;- 9958417249

Friday, August 28, 2015

प्रिय मित्रो और ग्रुप के सदस्यो से ये निवेदन किया जाता है की ग्रुप मे किसी
भी तरह का गाली-गलौज न करे और किसी के गुरु को गाली न दे । न ही उनकी
आलोचना करे । यदि आपकी आदत ऐसी है की आप बिना किसी की आलोचना
किए बिना या फिर किसी को गाली दिये बिना आपका खाना हजम नहीं होता है
तो कृपा करके आप इस ग्रुप से स्वयं ही निकल जाये । यदि आप ऐसा करते
हुये पाये गए तो आपको ग्रुप से निकाल दिया जाएगा । क्यूकी मै नहीं चाहता
की ग्रुप की शांति भंग हो । ग्रुप मे साधनाओ पर चर्चा हो ये जरूरी है । और
आप चाहो तो ग्रुप मे साधना पोस्ट कर सकते हो पर वही साधना पोस्ट करे
जो आपने खुद ही हो और आपकी खुद की अनुभूत हो तो ही पोस्ट करे ।
TRATAK SE DHYAN KI OR






योग शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर में नाड़ियों के गुच्छों के रूप में सात चक्र स्थापित हैं जिन्हें सुप्त अवस्था में रहने देना है या जागृत करके उनसे मिलने वाले लाभों से खुद के जीवन को संवारना है यह स्वत: हम पर निर्भर करता है....यह बात हर उस आम व्यक्ति पर लागू होती है जिसे साधनाओं से कोई लेना देना नहीं होता पर जो व्यक्ति अपने जीवन में साधनाएं करते हैं वो जानते हैं की इन चक्रों की उन्के साधनात्मक जीवन में क्या महत्ता है|
वैसे तो हर चक्र का अपना एक विशेष महत्व है पर हमारे भूमध्य में स्थित आज्ञाचक्र का हमारे साधनात्मक जीवन से बड़ा लेनादेना है और वो इसलिए क्योंकि यह चक्र हमारी आँखों के बिलकुल मध्य में स्थित है जहाँ तीसरा नेत्र स्थापित होता है और साधना में आप कितनी तल्लीनता से बैठे हैं या आपका ध्यान कितना भटक रहा है ये सारा खेल यहीं से शुरू होता है ....पर यदि आपको याद हो तो मन से संबंधित लेख में हमने एक बहुत गुढ़ तथ्य को समझा था की –
“ यदि भ्रम से बचना है तो भ्रम से होने वाले फायदों और नुक्सान को तिलांजली दे दो “
इस कथन का सरल सा अर्थ यह है की वो चीज़ जिसे आप जानते हो की नहीं है उसके पीछे भागना व्यर्थ है .....पर साधना के समय ऐसा नहीं हो पाता.....उस समय तो हमारी मानसिक स्थिति ऐसी होती है जैसे ईश्वर ने समस्त ब्रह्मांड का दायितत्व हमारे कंधो पर ड़ाल दिया हो और यह स्थिति तब तक ज्यों की त्यों रहती है जब तक हम साधना से उठ नहीं जाते, ऐसा होता है यह हम सब जानते हैं पर क्यों होता है इस पर यदा-कदा ही विचार करते हैं| पर असल में यह कभी-कभी नहीं बल्कि रोज विचारने वाला विषय है क्योंकि साधना या मंत्र जाप करने का अर्थ होता है की वो समय हमारा और हमारे इष्ट का है पर उस समय में भी अगर हम ज़माने भर की बातें सोच रहे हैं तो उससे अच्छा है हम आसन पर बैठे ही नहीं क्योंकि मात्र माला चला लेने से, या आँखें मूंद कर बैठ जाने से कोई भगवान कभी खुश नहीं होते ......और साधना में हमारी ऐसी दशा का कारण होता है हमारा मन ......क्योंकि
“ जो ज्ञानी होते है वो जानते हैं की मन ना तो भरोसेमंद मित्र है और ना ही आज्ञाकारी सेवक, हम इसे निर्देशित तो कर सकते हैं पर नियंत्रित कदापि नहीं “
.....पर जो सिद्ध सन्यासी होते हैं उनके साथ उनका मन ऐसा खेल कभी नहीं खेलता क्योंकि वो इस तथ्य से पूर्णतः परिचित होते हैं की असल में मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं....यह सिर्फ एक भ्रम है, छलावा है और अगर विज्ञान की दृष्टि से इस बात की पुष्टि की जाए तो आपको चिकित्सक कभी किसी ऐसे शारीरिक अंग के बारे में नहीं बताएंगे जिसका नाम “ मन “ हो क्योंकि ऐसा कुछ होता ही नहीं है|
हमारे मस्तिष्क से निकलने वाली एक विशेष प्रकार की ऊर्जा या यूँ कहें की तरंग को हमने मन का नाम दे दिया है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि ऊर्जा हमेशा तब तक अनियंत्रित रहती है जब तक आपको उसका सदुपयोग समझ में ना आ जाये| हमारे अंदर निरंतर बनने वाली ऊर्जा को नियंत्रण में करने के लिए पहले हमें इसके मूल को समझना पड़ेगा जहाँ से इस ऊर्जा का निर्माण होता है|
......हम शरीर में सत, रज, और तम तीनों गुण कम या अधिक अनुपात में मौजूद हैं और हमारे मन या विचारों की गति और कार्य करने की क्षमता इन तीनों गुणों से हमेशा प्रभावित होती है और जिस समय आपके अंदर जिस गुण की प्रधानता होगी उस समय मस्तिष्क से निकलने वाली ऊर्जा, जिसे हमने मन का संबोधन दिया है, उसी तरफ जायेगी क्योंकि यह एक प्राकृतिक नियम है की ऊर्जा का प्रवाह हमेशा शक्ति के घनत्व की तरफ ही होता है और यही कारण है की हम हमेशा एक जैसे काम कभी नहीं करते.....कभी हम साधू होते है तो कभी.....
साधना में मन या अपने विचारों को स्थिर रखने के लिए ध्यान मार्ग, योग मार्ग इत्यादि में हजारों तरीके बताए गए हैं पर उन सब विधियों से उपर अगर कोई शक्ति या क्रिया है जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर करती सकती है...तो वो हैं आप खुद हो क्योंकि आपको आपसे ज्यादा अच्छे से ओर कोई नहीं जानता| इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की आपने आज तक अपने विचारों को एकाग्र करने के लिए किन-किन नियमों का पालन किया है क्योंकि आपके द्वारा किये गए सारे क्रिया कलाप व्यर्थ हो जाते हैं जब तक आपकी आँखे स्थिर नहीं हो जाती ओर आँखों को स्थिर करने के लिए आपको खुद को थकाने की कोई जरूरत नहीं है....यदि किसी चीज़ की जरूरत है तो वो है खुद को दोष मुक्त करने की....
हम सब यह तो जानते हैं की मन या विचारों को नियंत्रित करना अत्यंत दुष्कर है....पर हमें यह तथ्य भी पता होना चाहिए की चेतना कभी मलीन या दूषित नहीं होती, ये तो हमारी आत्मा की एक तरंग है जिसे हमें बस सही दिशा दिखानी होती है और इस चेतना को हम सही दिशा तभी दिखा पायेंगे जब हमें इसका सही मार्ग पता हो| हठयोग में ६ तरह की अलग – अलग क्रियाएँ बताई गयी हैं जिनमें से त्राटक को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह हमारी मानसिक शान्ति के साथ-साथ आध्यात्मिक शक्ति को भी बढ़ाता है|
हमारे मस्तिष्क में तरंगों के रूप में विचार हमेशा आते-जाते रहते हैं पर जब हम त्राटक का अभ्यास करते हैं तो इन विचारों के आने जाने से शतिग्र्स्त होने वाली ऊर्जा का ७० प्रतिशत हम पुन्ह: प्राप्त कर लेते हैं और वो इसलिए क्योंकि अब हमारी दौड़ विचारों को पकड़ने की ना होकर आँखों को स्थिर करने की है और यदि आप कोशिश करेंगे तो आप जानेंगे की विचारों की तुलना में आँखों की पुतलियों को स्थिर करना ज्यादा सहज भी है और कारागार भी| और यह एक बार नहीं हजारों बार अनुभूत की गयी क्रिया है की जैसे ही आपकी आँखों की पुतलियाँ स्थिर होती हैं...आपका मन भी आपके नियंत्रण में आ जाता है और इसका पता हमें चलता है शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु के स्थिर हो जाने से|
त्राटक दो तरीकों से किया जा सकता है-
१) बाह्य त्राटक
२) आंतरिक त्राटक
बाह्य त्राटक में आपको अपना ध्यान शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु पर केंद्रित करना होता है जिससे आध्यात्मिक स्तर पर आप अपने विचारों पर नियंत्रण करने की कला सीखते हो और भौतिक स्तर पर आपकी आँखों में स्वत: ही किसी को भी सम्मोहित करने की क्षमता पैदा हो जाती है|
आंतरिक त्राटक में आपको अपने आज्ञाचक्र पर ध्यान केंद्रित करना होता है....और इस क्रिया में आपको अपनी आँखों की पुतलियों को भूमध्य में केंद्रित करना पड़ता है जिससे शुरूआती दिनों में थोड़ा दर्द हो सकता है| इस त्राटक को सफलतापूर्वक करने से जहाँ आपके आज्ञाचक्र में स्पंदन होना शुरू हो जाता है.....वहीँ आप काल विखंडन साधना को करने की पात्रता भी अर्जित कर लेते हो|
भौतिक स्तर पर त्राटक का नियमित अभ्यास आपके सोचने, समझने की क्षमता को कई गुना बढ़ा देता है और आपने अंदर नाकारात्मक ऊर्जा को नष्ट भी करता है.....बस आपको एक बात हमेशा ध्यान में रखनी है की आप जब भी त्राटक का अभ्यास करो तो आपके चारों तरफ शान्ति हो और इसीलिए सुबह का समय इसके लिए सबसे श्रेष्ठ माना जाता है|
यहाँ दिया गया मंत्र त्राटक की इस क्रिया में शीघ्रातिशीघ्र सफल होने में आपकी सहायता करेगा पर मंत्र अपना काम तभी दक्षता से करेगा जब आप नियमित रूप से इस क्रिया का अभ्यास करेंगे वो भी बस १० से १५ मिनट तक| आपको मात्र शांत बैठ कर गुरुदेव प्रदत्त निम्न मंत्र का १०-१५ मिनट गुंजरन करना है.ये सुषुम्ना को जाग्रत कर आपके लक्ष्य प्राप्ति को सरल और सुगम कर देता है.
ॐ क्लीं क्लीं क्रीं क्रीं हुं हुं फट् ||
(OM KLEEM KLEEM KREEM KREEM HUM HUM PHAT)
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मोबाइल नं. : - 09958417249
व्हाट्सप्प न०;- 9958417249
कृष्णा SAMMOHAN साधना




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कृष्णंवन्देजगत्गुरुं

कृष्ण का नाम मानस में आते ही आँखों के समक्ष एक एसी मूर्ति साकार हो जाती है की अपने आप अधरों पर एक मुस्कान तैर जाए. ऐतेहासिक द्रष्टि से या शाश्त्रोक्त नज़रिए से, चाहे किसी भी रूप में देखा जाए, कृष्ण का व्यक्तित्व अपने आप में एक अनूठा तथा दिव्यता से परिपूर्ण व्यक्तित्व रहा है. एक सामान्य से असामान्य तक की उनकी जीवन यात्रा हमें क्या क्या नहीं सिखाती समाजाती और देती है वह ज्ञान की आखिर जीवन का सौंदर्य क्या है. अगर सिद्धो के द्वारा भी कृष्ण को जगत गुरु कहा गया है तो उसके आगे तो क्या कहा जा सकता है. श्याम और मुरली मनोहर में क्या ऐसा गुण था की आज भी किसी को जब उनके बारे में ध्यान आता है तो व्यक्ति अपने आप में ही मधुरता युक्त हो जाता है. सौंदर्य और आकर्षण से भी ऊपर उस व्यक्तित्व में ऐसा कुछ ज़रूर था की जो भी उनके समपर्क में आता था चाहे वह उनके मित्र हो या शत्रु, सब उनके मोह पाश से मुक्त नहीं हो पाते थे. और जब जब भी एक इसे गुण की बात कही भी आती है जो व्यक्ति को आकर्षण से बद्ध कर दे, एक ऐसा गुण की जो भी उस व्यक्ति के संपर्क में आये वह मधुरता से भर जाए, कुछ ऐसा की उससे मिलते ही सरे दुःख दर्द दूर हो जाए और वियोग के समय जेसे प्राण ही निकल जाए, अगर इन सब को एक गुण का नाम दिया जाए तो क्या वह सम्मोहन नहीं है? निश्चय ही कृष्ण आकर्षण और उससे भी बहोत आगे सम्मोहन से युक्त व्यक्तित्व थे आज भी सेकडो वर्षों के बाद भी जिनका नाम जहाँ पर भी सम्मोहन या आकर्षण की बात होती है, वहाँ आ ही जाता है.
अगर इस शब्द का संधि विच्छेद किया जाये तो इसका अर्थ होता है मोहन से परिपूर्ण. मोहन वह गुण जो की किसी भी व्यक्ति को बाध्य कर दे अनुकूल बनने के लिए, अपने आप को उस स्तर तक दिव्यता से भर देना की जहां दूसरे व्यक्ति भी उस दिव्यता के संपर्क में आते ही खुद दिव्यता से युक्त हो जाये. और पीछे रह जाये तो बस एक मधुरता जहां पर कोई चिंता या विषाद ही न हो. लेकिन क्या ऐसा सम्मोहन प्राप्त करना संभव है? और अगर ऐसा सम्मोहन प्राप्त हो जाए तो क्या फिर शेष ही क्या रह गया. चाहे वह भौतिक जीवन हो या अध्यात्मिक जीवन हो. निश्चय ही दोनों पक्षों में पूर्णता प्राप्त करना कितना सहज हो सकता है. एक तरफ व्यक्ति अपने रोजिंदा जीवन में अपने कार्य क्षेत्र, व्यापर, गृहस्थी में पूर्ण वैभव और सुखमय हो कर जीवन का आनंद ले सकता है वहीँ दूसरी तरफ अपनी आतंरिक शक्तियों का विविध मनः स्तर पर जागृत करता हुआ आध्यात्मिक चेतना का भी पूर्ण विकास कर सकता है. लेकिन यह सब कैसे हो सकता है?
तंत्र के क्षेत्र में असंभव जेसा तो कुछ है ही नहीं. पारद तंत्र तो अपने आप में अंतिम तंत्र कहा गया है जहां पर एक से एक विलक्षण प्रयोग पारद और तंत्र के माध्यम से सम्प्पन किये जाते है. इसी क्रम में सम्मोहन और आकर्षण से सबंधित भी कई गुढ़ प्रक्रियाएं इस क्षेत्र में निहित है ही. ऐसा ही एक प्रयोग है कृष्ण सम्मोहन प्रयोग. जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने अंदर एक ऐसा सम्मोहन उत्पन्न कर सकता है जो की उसे भौतिक तथा अध्यात्मिक दोनों धरातल पर कई कई प्रकार की अनुकूलताएं प्रदान करने में सर्व समर्थ है. क्यों की जहां एक और पारद इस ब्रह्माण्ड में जिव द्रव्य के रूप में कण कण में उपस्थित हो कर पूर्ण सम्मोहन आकर्षण को मनुष्य के कण कण में भी सम्मोहन भर देता है वहीँ दूसरी तरफ इस कार्य को दैवीय शक्तियों के माध्यम से पूर्ण वेगवान बनाती है तंत्र प्रक्रिया.
यह साधना साधक किसी भी रविवार की रात्री में शुरू करे. समय सूर्योदय का हो या फिर रात्री में ९ बजे के बाद का.
साधक स्नान आदि से निवृत हो कर लाल वस्त्रों को धारण करे. तथा लाल आसान पर बैठ जाए. साधक का मुख उत्तर दिशा की तरफ रहे.
साधक अपने सामने पारद सौंदर्य कंकण स्थापित करे अगर साधक के लिए यह संभव न हो तो साधक अपने सामने भगवान कृष्ण का कोई चित्र या सम्मोहन यंत्र स्थापित कर ले लेकिन सौंदर्य कंकण स्थापित करने पर साधक महत्तम लाभ प्राप्ति तथा पूर्ण सफलता को अर्जित कर सकता है. गुरुपूजन, गणेशपूजन सम्प्पन कर साधक भगवान कृष्ण के चित्र या गुटिका का भी सामान्य पूजन सम्प्पन करे.
इसके बाद साधक गुरुमंत्र का जाप कर निम्न मंत्र की ११ माला जाप करे. यह जाप साधक को रक्त माला या मूंगा माला से करनी चाहिए. अगर साधक के पास
कोई सम्मोहन माला है तो उसका प्रयोग भी इस साधना हेतु किया जा सकता है.
क्लीं कृष्णाय सम्मोहन कुरु कुरु नमः
(kleem krishnaay sammohan kuru kuru namah)
साधक यह क्रम 11 दिन तक करे. 11 दिन हो जाने पर साधक माला को सुरक्षित रखले. यह माला आगे भी सम्मोहन साधनाओ के लिए उपयोग की जा सकती है. सौंदर्य कंकण को पूजा स्थल में स्थापित कर दे.
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Purv जीवन दर्शन साधना






मानव जीवन एक अनत लम्बाई लिए हुए श्रंखला में ही गति शील ही हैं , यदि आज के जीवन को बर्तमान माने तो इसका भविष्य और भूतकाल भी तो होना ही चाहिए ही , जीवन को एक रस्सी मान ले और उसके मध्य के किसी भी भाग के पकड़ ले तो निश्चय ही कहीं तो उसका प्रारंभ होगा और कहीं तो उसका अंत होगा ही भले ही वह हमें दृष्टी गत हो या न हो, ठीक इसी तरह हमें हमारा न अतीत मालूम हैं न भविष्य हम मध्य में कहाँ हैं , कहाँ जायेंगे यह सब भी नहीं मालूम ,
जीवन के अनेक प्रश्नों का उत्तर इतना आसान नहीं हैं , की मात्र कुछ तर्क और वितर्क से वर्तमान जीवन की सारी उच्चता और विसंगतियों को समझा जा सके .उसके समझने के लिए पूर्व जीवन दर्शन होना ही चाहिए , तब पता चल सकता हैं की मेरे जीवन में ऐसा क्यों हैं इसका कारण क्या हैं , और जब ये समझ में आ जायेगा तो उसके निराकरण के उपाय भी खोजे जा सकते हैं .
अन्यथा,पूरा जीवन एक अनबुझ पहेली सा बन कररह जायेगा , अपने देश में तीन महान धर्म का उदय हुआ हैं ये हिन्दू , बौद्ध और जैन धर्म हैं , आपस में इनके कितने भी विरोधाभास दिखाए दे पर एक बात पर सभी एक मत हैं की कर्म फल तो प्राप्त होता ही हैं और सहन करना ही पड़ेगा
वेदान्त कहता हैं -हाँ हमने ही उस कर्म का निर्माण किया हैं तो हम ही उसे समाप्त कर भी सकते हैं , पर कैसे उसके लिए कारण भी तो जानना पड़ेगा न ,
आज के जीवन में यही क्यों मेरा भाई हैं या मेरे निकटस्थ होते हुआ भी इनके प्रति मेरे स्नेह सम्बन्ध क्यों नहीं हैं , क्यों दूरस्थ होता हुआ भी व्यक्ति अपना सा लगता हैं, क्यों इतनी गरीबी या शरीर में इतने रोग हैं आदि आदि अनेक प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाते हैं ,
क्या इस जीवन में जो गुरु हैं या सदगुरुदेव हैं क्या वह विगत जीवन में भी या उससे भी पहले के जीवन से जुड़े हैं और क्या कारण था की /और कहाँ से संपर्क टुटा , सब तो इस पूर्व जीवन दर्शन से संभव हैं,
आजकल अनेको प्रविधिया विकसित हैं ध्यानके माध्यमसे व्यक्ति धीरे धीरे पीछे जा सकता हैं पर ठीक बाल्य काल की ४ वर्ष कि आयु से पहले जाना बहुत ही कठिन हैं , इस अवरोध को पास करना कठिन हैं .
सम्मोहन भी एक विधा हैं पर उसके लिए उच्चस्तरीय सम्मोहनकर्ता होना चाहिए , साथ ही साथ मानव मस्तिष्क इतना शक्तिशाली हैं की वह जो नहीं हैं वह भी आपको दिखा सकता हैं , इन तथ्योंको जांच करना जरुरी हैं .
साधना क्षेत्र में भी अनेको साधनाए हैं पर सभी इतनी क्लिष्ट हैं इन सभी को
ध्यान में रखते हुए एक सरल प्रभाव दायक साधना आप सभी के लिए ..
मन्त्र :
क्लीं पूर्वजन्म दर्शनाय फट्
सामान्य साधनात्मक नियम :
· जप में काले रंग की हकीक माला का उपयोग करें
· साधना बुध वार से प्रारंभ करसकते हैं
· जप काल में दिशा दक्षिण रहेगी
· साधन काल में धारण किये जाने वाले वस्त्र और आसन लाल रंग के होंगे
· धृत के दीपक को देखते हुए रात्रि काल १० बजे के बाद(10PM) मे 31 माला मन्त्र जप होना चाहिए
· यह क्रम ११ दिन तक चले अर्थात कुल ११ दिन तक साधना चलनी चाहिए .
सफलता पूर्वक होने पर आपको स्वप्न या तन्द्रा अवस्था मे पूर्व जन्म सबंधित द्रश्य दिखाई देते है. जिनके माध्यम से आपके जीवन की अनेक रहस्य खुलती जाती हैं.
आज के लिए बस इतना ही
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Thursday, August 27, 2015



MAYABEEJ रहस्य




ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म तदेवाहुश्चह्रींमयं
द्वेबीजे मममन्त्रौसतो मुख्यत्वेनसुरोतमे
साधना के अद्भुत क्षेत्र में, मंत्र और यंत्रो की सहायता से एक निश्चित प्रक्रिया को पूर्ण करने की सुव्यवस्थित क्रिया को ही तंत्र कहा जाता है. निश्चय ही पूर्ण तंत्रोक्त प्रक्रियाओ की आधारभूत शक्ति मन्त्र रहे है, और मंत्रो का आधार वर्ण तथा बीज. और इन्ही बीज अक्षरों तथा बीज मंत्रो का आपसमे संयोजन हो कर विविध मन्त्र श्री सदाशिव के मुख्य से जनमानस के कल्याण हेतु प्रकट हुवे.
तंत्र के क्षेत्र में सभी बीज मंत्रो का एक अत्यधिक विशिष्ट स्थान है तथा साधको के मध्य बीज मंत्रो का महत्त्व अपने आप में प्रख्यात है ही. यहाँ पर एक बात ध्यान देना आवश्यक है की क्यों इन बीज मंत्रो को इतना ज्यादा महत्त्व दिया जाता है. सर्व प्रथम यह बात को समजना चाहिए की मंत्रो का आधार ध्वनि है, स्वर तथा अक्षर ही मानस की तरंगों को ध्वनि में परावर्तित करते है. चाहे वह मानसिक रूप से भी क्यों न हो, क्यों की हमारे अंदर की कोई भी क्रिया एक निश्चित ध्वनि को जन्म देती ही है, हमारी सुनने की एक क्षमता है. जिसके आगे हम सुन नहीं सकते है इस लिए शरीरस्थ सभी ध्वनि हम सुन नहीं पाते है. लेकिन ध्वनि का उद्भव होता है और वह ध्वनि एक उर्जा का निर्माण करती है. हर एक ध्वनि एक विशेष उर्जा का निर्माण करती है. इसी लिए मानसिक जाप की सूक्ष्म ध्वनि भी शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा का निर्माण करती है. वैसे तो वर्ण और बीज के ऊपर प्रचुर मात्र में तांत्रिक साहित्य हमारे ऋषि मुनियों द्वारा लिखा गया था लेकिन काल क्रम में वह लुप्त होने लगा. फिर भी तंत्रोक्त उपासना में बीज मंत्रो की अनिवार्यता को किसी भी काल में ज़रा सभी नकारा नहीं गया और फल स्वरुप कई सुविख्यात बीज मंत्र आज जनमानस के मध्य में प्रचलित है, जिसमे ॐ तथा श्रीं सबसे ज्यादा प्रचलित रहे है लेकिन इनके जुड़े हुवे सिद्धि पक्ष विविध साधना पद्धतियाँ तथा इनसे सबंधित विविध रहस्य काल क्रम में जरुर लुप्त होने लगे है.
तंत्र क्षेत्र के किसी भी साधक को बीज मन्त्र ‘ह्रीं’ के महत्त्व को समजाने की आवश्यकता ही नहीं है. यह बीज हमेशा ही साधको का प्रिय बीज रहा है जो की कई कई रहस्यों से परिपूर्ण है. उपरोक्त पंक्तियाँ इसी बीज मन्त्र के सबंध में है. जिसमे सदाशिव देवी को एक नूतन तंत्र ज्ञान देते है; जिसका अर्थ कुछ इस प्रकार है
एक अक्षर ॐ ही ब्रह्म है जो की सदैव ह्रीं से परिपूर्ण है. अर्थात ॐ तथा ह्रीं दोनों ही एक दूसरे के पूरक है. दोनों ही बीज देव के मूल स्वरुप अर्थात ब्रह्म स्वरुप है. जिसमे एक भाग पुरुष है (ॐ) तथा दूसरा भाग प्रकृति (ह्रीं).
इस श्लोक का विश्लेषण करने पर व्यक्ति कई तथ्यों के बारे में समज सकता है. ब्रह्म एक पूर्ण सत्ता है, जिसके दो मुख्य भाग शिव तथा देवी के स्वरुप में है. तथा इन दोनों को सम्मिलित रूप से देखने पर यह ब्रह्म स्वरुप द्रष्टिगोचर होता है लेकिन विखंडित रूप में यह शिव और शक्ति है. ध्वनि रूप में शिव ॐ रूप में है वहीँ ध्वनि स्वरुप में शक्ति ह्रीं रूप में है.
वैसे यह श्लोक का प्रकट या प्रथम अर्थ है. तांत्रिक वाग्मय में सप्तार्थी श्लोक होते है, एक ही बीज, मन्त्र या श्लोक के सूक्ष्म से सूक्ष्मतम खोज करने पर सात अलग अलग अर्थ की प्राप्ति होती है, जिसमे प्रकट अर्थ स्वरुप की अभिव्यक्ति होता है; बाकी सभी अर्थ गुरुगम्य होते है. यही कारण है की कई बार पुरातन साहित्य इत्यादि में प्रकट साधना न दे कर सिर्फ संज्ञा दे दी गई होती है जिसका गूढार्थ सिर्फ सिद्ध गुरु के माध्यम से ही समजा जा सकता है. इसी प्रकार उपरोक्त श्लोक में भी ब्रह्म स्वरुप की साधना क्रम को बीज मंत्रो से वर्णित किया गया है जो की पृथक विषय है. यहाँ पर हम ह्रीं बीज के बारे में ही आगे चर्चा करते है.
ह्रीं मन्त्र का स्वरुप कुछ है. यह बीज ह, र, इ तथा चन्द्र (ँ ) जो की अनुस्वर की भावना देता है. इन अक्षरों के व्यापक अर्थ है. तथा कई सिद्धो ने इसकी विविध व्याख्या की है. लेकिन जो सर्वजन मान्य है वह यह है की
हकारशिववाचि; ह अर्थात शिव,
रेफः प्रकृतिरच्यते; र प्रकृति सूचक है,
महामायार्थ इ शब्दा; इ महामाया का प्रतिक है
तथा नादोविश्वप्रसूः स्मृत चन्द्र ब्रह्म नाद का प्रतिक है.
इस प्रकार इसका एक अर्थ यह होता है की शिव तथा प्रकृति अर्थात देवी प्रदत महामाया का वास्तविक अर्थ समजाने वाला यह ब्रह्मनाद या ब्रह्मांडीय ध्वनि का यह बीज है.
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विपरीत प्रत्यंगिरा स्तोत्रम्







वर्तमान कलियुग में नानाप्रकार के तापों से जातकों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। जातकों के मन में हमेशा अशांति का वातावरण छाया रहता है आखिर वह क्या करे जिससे मन को शांति तो मिले ही साथ ही यश, वैभव, कीर्ति, शत्रुओं से छुटकारा, ऋण से मुक्ति और ऊपरी बांधाओं से मुक्ति। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मां भद्रकाली, दक्षिणकाली या महाकाली की घनघोर तपस्या कर जातकों को इन सभी वस्तुओं से छुटाकर कीर्ति की पताका लहराई थी। बहुत कम जातक जानते होंगे मां प्रत्यंगिरा के बारे में, मां प्रत्यंगिरा का भद्रकाली या महाकाली का ही विराट रूप है। मां प्रत्यंगिरा की गुप्तरूप से की गई आराधना, जप से अच्छों-अच्छों के झक्के छूट जाते हैं। कितना ही बड़ा काम क्यों न हो अथवा कितना बड़ा शत्रु ही क्यों न हो, सभी का मां चुटकियों में शमन कर देती हैं। आप भी मां प्रत्यंगिरा की सच्चे मन से साधना-आराधना-जप करके यश, वैभव, कीर्ति प्राप्त कर सकते हैं। स्तोत्रम प्रारंभ करने से पूर्व प्रथम पूज्य श्रीगणेश, भगवान शंकर-पार्वती, गुरुदेव, मां सरस्वती, गायत्रीदेवी, भगवान सूर्यदेव, इष्टदेव, कुलदेव तथा कुलदेवी का ध्यान अवश्य कर लें। यह स्तोत्र रात्रि 10 बजे से 2 के मध्य किया जाए तो तत्काल फल देता है।
श्री प्रत्यंगिरायै नम:
अथ विनियोग
ऊँ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नम:। ऊँ हृी तर्जनीभ्यां नम:। ऊँ श्री मध्यमाभ्यां नम:। ऊँ प्रत्यंगिरे अनामिकाभ्यां नम:। ऊँ मां रक्ष कनिष्ठिकाभ्यां नम:। ऊँ मम शत्रून्भञ्जय करतल कर पृष्ठाभ्यां नम: एवं हृदयादिन्यास:। ऊँ भूर्भुव: स्व: इति
दिग्बन्ध।
मूल मन्त्र
ऊँ ऐं हृीं श्रीं प्रत्यंगिरे मां रक्ष रक्ष मम।
शत्रून्भञ्जय भन्ञ्जय फे हुँ फट् स्वाहा।।
।। विपरीत प्रत्यंगिरा स्तोत्रम्।।
अष्टोत्तरशतञ्चास्य जपं चैव प्रकीर्तितम्।
ऋषिस्तु भैरवो नाम छन्दोह्यनुष्टुप प्रकीर्तितम्।।
देवता दैशिका रक्ता वाम प्रत्यंगिरेति च।।
पूर्वबीजै: षडं्गानि कल्पयेत्साधकोत्तम:।
सर्वदृष्टोपचारैश्च ध्यायेत्प्रत्यंगिरां शुभां।।
टंकं कपालं डमरुं त्रिशूलं सम्भ्रिती चन्द्रकलावतंसा।
पिंगोध्र्वकेशाह्यसितभीमद्रंष्ट्रां भूयाद्विभूत्यै मम भद्रकाली।।
एवं ध्यात्वा जपेन्मंत्रमेकविंशतिवासरान्।
शत्रूणां नाशनं ह्येतत्प्रकाशोह्ययं सुनिश्चय:।।
अष्टम्यामर्धरात्रे तु शरदकाले महानिशि।
आधारिता चेच्छ्रीकाली तत्क्षणात् सिद्धिदानृणाम्।।
सर्वोपचारसम्पन्ना वस्त्ररत्नकलादिभि:।
पुष्पैश्च कृष्णवर्णैश्च साध्येत्कालिकां वराम्।।
वर्षादूध्र्वमजम्ममेषम्मृदं वाथ यथाविधि।
दद्यात् पूर्वं महेशानि ततश्च जपमाचरेत्।।
एकाहात् सिद्धिदा काली सत्यं सत्यं न संशय:।
मूलमन्त्रेण रात्रौ च होमं कुर्यात् समाहित:।।
मरीचलाजालवणैस्सार्षपैर्मरणं भवेत।
महाजनपदे चैव न भयं विद्यते क्वचित्।।
प्रेतपिण्डं समादाय गोलकं कारयेत्तत:।
मध्ये वामांकितं कृत्वा शत्रुरूपांश्च पुत्तलीन्।।
जीवं तत्र विधायैव चिताग्नौ जुहुयात्तत:।
तत्रायुतं जपं कुर्यात् त्रिराद्यं मारणं रिपो:।।
महाज्वाला भवेत्तस्य तद्वत्ताशलाकया।
गुदद्वारे प्रदद्यच्च सप्ताहान्मारणं रिपो:।।
प्रत्यंंगिरा मया प्रोक्ता पठिता पाठिता नरै:।
लिखित्वा च करे कण्ठे बाहौ शिरसि धारयेत्।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो नाल्पमृत्यु: कथंचन।
ग्रहा: ऋक्षास्तथा सिंहा भूता यक्षाश्च राक्षसा:।।
तस्या पीड़ां न कुर्वन्ति दिवि भुव्यन्तरिक्षगा:।
चतुष्पदेषु दुर्गेषु वनेषूपवनेषू च।।
श्मशाने दुर्गमे घोरे संग्रामे। शत्रुसंकटे।।
ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ कुं कुं कुं मां सां खां पां लां क्षां ऊँ हृीं हृीं ऊँ ऊँ हृीं बां धां मां सां रक्षां कुरु। ऊँ हृीं हृीं ऊँ स: हुँ ऊँ ऊँ क्षौं वां लां धां मां सां रक्षां कुरु। ऊँ ऊँ हुँ पुलं रक्षां कुरु। ऊँ नमो विपरीतप्रत्यंगिरायै विद्यराज्ञि त्रैलोक्यवशंकरि तुष्टिपुष्टिकरि सर्वपीड़ापहारिणि सर्वापन्नाशिनि सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिनि मोदिनि सर्वशस्त्राणां भेदिनि क्षोभिणि तथा।
परमतन्त्रमन्त्रयन्त्रविषचूर्ण-सर्वप्रयोगादीन्येषां निवर्तयित्वा यत्कृतं तन्मेह्यतु कलिपातिनि सर्वहिंसा मा कारयति अनुमोदयति मनसा वाचा कर्मणा ये देवासुरराक्षसास्तियग्योनि-सर्वहिंसका विरूपकं कुर्वन्ति मम मन्त्रतन्त्रयन्त्रविषचूर्ण-सर्वप्रयोगादीनात्महस्तेन य: करोति करिष्यति कारयिष्यति तान् सर्वानन्येषां निवर्तयित्वा पातय कारय मस्तके स्वाहा।
।। इति श्री विपरीत प्रत्यिंगरा सम्पूर्णम्।।
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महा प्रचंड काल भैरव साधना विधि

  ।। महा प्रचंड काल भैरव साधना विधि ।। इस साधना से पूर्व गुरु दिक्षा, शरीर कीलन और आसन जाप अवश्य जपे और किसी भी हालत में जप पूर्ण होने से पह...