Sunday, August 9, 2015

संन्यासी वस्त्रों से नहीं, विचारों से होता है






जब-जब सन्यास की चर्चा होती है तब-तब हमारे सामने एक ऐसे व्यक्ति का स्वरूप उभरता है, जिसने जटा-दाढ़ी बढ़ा रखी है, भगवे, काले, सफेद लम्बे चोले धारण किये हुए हैं, जो निरन्तर पूजा-पाठ साधना करता है, जो भिक्षावृत्ति अथवा दूसरों के आश्रय में भोजन प्राप्त करता है। हमने यह मान लिया है कि संन्यासी शहर-कस्बों में नहीं, अपितु हिमालय, विंध्याचल, गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ जैसी दुर्गम जगहों पर रहते हैं। संन्यासी के पास धन नहीं होता, वह अपने शरीर की परवाह नहीं करता और निरन्तर भ्रमण करता रहता है। हमने यह मान लिया है कि नागा संन्यासी ही संन्यासी है, जो एकदम अघोरी की तरह निर्लिप्त रहते हैं, सब प्रकार के नशे करते हैं, श्मशान में साधनाएं करते रहते हैं।
क्या यह परिभाषा सही है? क्या हमने संन्यासी का जो विवरण जाना है, वह वास्तव में सही विवरण है? क्या संन्यास का तात्पर्य घर से भागना है? क्या सन्यास का तात्पर्य ब्रह्मचारी रहना है? क्या संन्यास का तात्पर्य यही है कि संन्यासी तीर्थ स्थलों पर ही रहें?
भारतीय संस्कृति में संन्यास
ये प्रश्न आज इसलिए उठ खड़े हुए हैं कि भारतीय संस्कृति ने जो संन्यासी को आदर-सम्मान दिया है, उस पर एक प्रश्न-चिन्ह लग गया है। आज साधु-सन्यासियों को आदर के भाव से नहीं देखा जाता, अपित संन्यासी को देखकर एक शंका का विचार आने लग जाता है। आम आदमी तो यह निर्णय ही नहीं कर पाता कि सच्चा संन्यासी-साधु कौन है और कौन सन्यास के नाम पर जन-मानस के साथ धोखाधड़ी कर रहा है।
आज इस कारण आज इस प्रश्न का मंथन कर लेना है कि वास्तव में सन्यास क्या है?
हर व्यक्ति अपने जीवन में उदाहरण और प्रेरक व्यक्तित्व से, आदर्श व्यक्तित्व से सीखता है, ज्ञान प्राप्त करता है। हम दिव्य महात्माओं के, देवी-देवताओं के स्वरूप चित्र देखकर ही और उनका ज्ञान पढ़कर अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं।
मेरे विचार से ऐसा ही दृश्य शंकराचार्य के जीवन में आया होगा, जब शंकर केरल से चलकर ऊँकारेश्वर पहुंचे और गुरु गोविन्दपादाचार्य से दीक्षा के लिए प्रार्थना की। एक साल में उनके गुरु ने सारा ज्ञान उन्हें प्रदान किया और कहा कि- ‘अब तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण हो गयी है, लेकिन इस शिक्षा-दीक्षा को अपने कल्याण में ही व्यतीत करोगे, केवल स्वयं में ही सुखी होओगे तो मेरी शिक्षा-दीक्षा तुम तक ही सीमित हो जायेगी। तुम यहां से जाओ और पूरे भारतवर्ष का भ्रमण कर इस वैदिक ज्ञान को पुन: स्थापित करो।’
संन्यासवृत्ति और गृहस्थ
गुरु का ज्ञान ही वह आधार था, जिसकी स्थापना के लिए शंकराचार्य ने काशी, हरिद्वार, ऋषिकेश, बद्रीनाथ, उत्तरकाशी, प्रयाग, पंचवटी, असम, पंढ़रपुर, श्रीशैल आदि स्थानों की यात्रा की। धीरे-धीरे शंकराचार्य ने पूरे आर्यावर्त में साधना-उपासना और हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार किया। हमारे सद्गुरुदेव हमारे परिवार के वट-वृक्ष हैं, जिनकी छाया में हम सब जीवन का आनन्द उठाते हैं। उन्होंने अपने प्रवचनों में कहा कि- गृहस्थ अपने गृहस्थ जीवन में भी संन्यासी बन सकता है, गृहस्थ के ऊपर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है कि वह संन्यासी नहीं बन सके, वह ज्ञान नहीं प्राप्त कर सके।
हर गृहस्थ में एक संन्यासी छुपा हुआ है, जिस दिन अपने मन के उस संन्यास भाव को तीव्र कर अपने मस्तिष्क में स्थापित कर लेता है, उस दिन वास्तव में वह सद्गृहस्थ बन जाता है। वह इस संसार में रहते हुए भी इस संसार के दु:खों से परे हो जाता है। उसका जीवन वैसा ही हो जाता है, जैसा कीचड़ में रहने वाले कमल का हो जाता है, जो कीचड़ में रहता है, लेकिन अपने ऊपर एक बूंद को भी नहीं रुकने देता है। वह जल में रहते हुए भी उस मछली की तरह हो जाता है, जो निरन्तर जल पी रही है, लेकिन उस जल को अपने शरीर में रचा-बसा नहीं लेती। वह तो जिस स्थान पर रहता है, उस स्थान पर प्रसन्न रहता है। उसके जीवन में धर्म भी होता है, अर्थ भी होता है।
संन्यासी जब तक जीते हैं, सीखते हैं। संन्यासी शरीर और स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं। संन्यासी ईश्वर और सद्गुरु को समय देते हैं। संन्यासी ईश्वर और सद्गुरु में पूर्ण विश्वास रखते हैं। संन्यासी जो भी करते हैं, सर्वश्रेष्ठ करते हैं, वे मन को प्रेमाश्रय बना लेते हैं, प्रत्येक का आदर करते हैं, खुद एवं दूसरों के साथ ईमानदार रहते हैं, अपनी जरूरतें कम से कम रखते हैं, निरन्तर नवीन करते रहते हैं, अपने कार्य के प्रति पूर्ण जिम्मेदार होते हैं, सुनते ज्यादा, बोलते कम हैं, संन्यासी अपना लक्ष्य स्पष्ट रखते हैं, समय का सदुपयोग करते हैं, पल-पल का आनन्द उठाते हैं।
गृहस्थ की चक्की कोई कोल्हू की चक्की नहीं है, जिसमें गृहस्थ व्यक्ति अंधे बैल की तरह कोल्हू चलाते रहता है। गृहस्थ तो ईश्वर का दिया हुआ श्रेष्ठतम वरदान है, जिसमें मनुष्य को हजारों प्रकार की जिम्मेदारियां निभाने का अवसर मिलता है। उसे अपने जीवन में निर्माण के, संरचना के अवसर प्राप्त होते हैं। उसे इस संसार को और भी अधिक सुन्दर बनाने के अवसर प्राप्त होते हैं, सभी प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक सुखों का मार्ग उसके लिए खुला रहता है।
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