Thursday, August 27, 2015

विपरीत प्रत्यंगिरा स्तोत्रम्







वर्तमान कलियुग में नानाप्रकार के तापों से जातकों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। जातकों के मन में हमेशा अशांति का वातावरण छाया रहता है आखिर वह क्या करे जिससे मन को शांति तो मिले ही साथ ही यश, वैभव, कीर्ति, शत्रुओं से छुटकारा, ऋण से मुक्ति और ऊपरी बांधाओं से मुक्ति। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मां भद्रकाली, दक्षिणकाली या महाकाली की घनघोर तपस्या कर जातकों को इन सभी वस्तुओं से छुटाकर कीर्ति की पताका लहराई थी। बहुत कम जातक जानते होंगे मां प्रत्यंगिरा के बारे में, मां प्रत्यंगिरा का भद्रकाली या महाकाली का ही विराट रूप है। मां प्रत्यंगिरा की गुप्तरूप से की गई आराधना, जप से अच्छों-अच्छों के झक्के छूट जाते हैं। कितना ही बड़ा काम क्यों न हो अथवा कितना बड़ा शत्रु ही क्यों न हो, सभी का मां चुटकियों में शमन कर देती हैं। आप भी मां प्रत्यंगिरा की सच्चे मन से साधना-आराधना-जप करके यश, वैभव, कीर्ति प्राप्त कर सकते हैं। स्तोत्रम प्रारंभ करने से पूर्व प्रथम पूज्य श्रीगणेश, भगवान शंकर-पार्वती, गुरुदेव, मां सरस्वती, गायत्रीदेवी, भगवान सूर्यदेव, इष्टदेव, कुलदेव तथा कुलदेवी का ध्यान अवश्य कर लें। यह स्तोत्र रात्रि 10 बजे से 2 के मध्य किया जाए तो तत्काल फल देता है।
श्री प्रत्यंगिरायै नम:
अथ विनियोग
ऊँ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नम:। ऊँ हृी तर्जनीभ्यां नम:। ऊँ श्री मध्यमाभ्यां नम:। ऊँ प्रत्यंगिरे अनामिकाभ्यां नम:। ऊँ मां रक्ष कनिष्ठिकाभ्यां नम:। ऊँ मम शत्रून्भञ्जय करतल कर पृष्ठाभ्यां नम: एवं हृदयादिन्यास:। ऊँ भूर्भुव: स्व: इति
दिग्बन्ध।
मूल मन्त्र
ऊँ ऐं हृीं श्रीं प्रत्यंगिरे मां रक्ष रक्ष मम।
शत्रून्भञ्जय भन्ञ्जय फे हुँ फट् स्वाहा।।
।। विपरीत प्रत्यंगिरा स्तोत्रम्।।
अष्टोत्तरशतञ्चास्य जपं चैव प्रकीर्तितम्।
ऋषिस्तु भैरवो नाम छन्दोह्यनुष्टुप प्रकीर्तितम्।।
देवता दैशिका रक्ता वाम प्रत्यंगिरेति च।।
पूर्वबीजै: षडं्गानि कल्पयेत्साधकोत्तम:।
सर्वदृष्टोपचारैश्च ध्यायेत्प्रत्यंगिरां शुभां।।
टंकं कपालं डमरुं त्रिशूलं सम्भ्रिती चन्द्रकलावतंसा।
पिंगोध्र्वकेशाह्यसितभीमद्रंष्ट्रां भूयाद्विभूत्यै मम भद्रकाली।।
एवं ध्यात्वा जपेन्मंत्रमेकविंशतिवासरान्।
शत्रूणां नाशनं ह्येतत्प्रकाशोह्ययं सुनिश्चय:।।
अष्टम्यामर्धरात्रे तु शरदकाले महानिशि।
आधारिता चेच्छ्रीकाली तत्क्षणात् सिद्धिदानृणाम्।।
सर्वोपचारसम्पन्ना वस्त्ररत्नकलादिभि:।
पुष्पैश्च कृष्णवर्णैश्च साध्येत्कालिकां वराम्।।
वर्षादूध्र्वमजम्ममेषम्मृदं वाथ यथाविधि।
दद्यात् पूर्वं महेशानि ततश्च जपमाचरेत्।।
एकाहात् सिद्धिदा काली सत्यं सत्यं न संशय:।
मूलमन्त्रेण रात्रौ च होमं कुर्यात् समाहित:।।
मरीचलाजालवणैस्सार्षपैर्मरणं भवेत।
महाजनपदे चैव न भयं विद्यते क्वचित्।।
प्रेतपिण्डं समादाय गोलकं कारयेत्तत:।
मध्ये वामांकितं कृत्वा शत्रुरूपांश्च पुत्तलीन्।।
जीवं तत्र विधायैव चिताग्नौ जुहुयात्तत:।
तत्रायुतं जपं कुर्यात् त्रिराद्यं मारणं रिपो:।।
महाज्वाला भवेत्तस्य तद्वत्ताशलाकया।
गुदद्वारे प्रदद्यच्च सप्ताहान्मारणं रिपो:।।
प्रत्यंंगिरा मया प्रोक्ता पठिता पाठिता नरै:।
लिखित्वा च करे कण्ठे बाहौ शिरसि धारयेत्।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो नाल्पमृत्यु: कथंचन।
ग्रहा: ऋक्षास्तथा सिंहा भूता यक्षाश्च राक्षसा:।।
तस्या पीड़ां न कुर्वन्ति दिवि भुव्यन्तरिक्षगा:।
चतुष्पदेषु दुर्गेषु वनेषूपवनेषू च।।
श्मशाने दुर्गमे घोरे संग्रामे। शत्रुसंकटे।।
ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ कुं कुं कुं मां सां खां पां लां क्षां ऊँ हृीं हृीं ऊँ ऊँ हृीं बां धां मां सां रक्षां कुरु। ऊँ हृीं हृीं ऊँ स: हुँ ऊँ ऊँ क्षौं वां लां धां मां सां रक्षां कुरु। ऊँ ऊँ हुँ पुलं रक्षां कुरु। ऊँ नमो विपरीतप्रत्यंगिरायै विद्यराज्ञि त्रैलोक्यवशंकरि तुष्टिपुष्टिकरि सर्वपीड़ापहारिणि सर्वापन्नाशिनि सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिनि मोदिनि सर्वशस्त्राणां भेदिनि क्षोभिणि तथा।
परमतन्त्रमन्त्रयन्त्रविषचूर्ण-सर्वप्रयोगादीन्येषां निवर्तयित्वा यत्कृतं तन्मेह्यतु कलिपातिनि सर्वहिंसा मा कारयति अनुमोदयति मनसा वाचा कर्मणा ये देवासुरराक्षसास्तियग्योनि-सर्वहिंसका विरूपकं कुर्वन्ति मम मन्त्रतन्त्रयन्त्रविषचूर्ण-सर्वप्रयोगादीनात्महस्तेन य: करोति करिष्यति कारयिष्यति तान् सर्वानन्येषां निवर्तयित्वा पातय कारय मस्तके स्वाहा।
।। इति श्री विपरीत प्रत्यिंगरा सम्पूर्णम्।।
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