ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र विंध्यक्षेत्र को परम-पावन क्षेत्र के रूप में मान्यता प्राप्त है. यह क्षेत्र अनादिकाल से आध्यात्मिक साधना का केंद्र रहा है. यहां अनेक साधकों ने स्थान के महत्व को समझ कर सर्वे भवन्ति सुखिन: की भावना से साधना कर सिद्धि प्राप्त की. वामपंथी साधना की अधिष्ठात्री देवी मां तारा है. मां तारा देवी लोक जीवन में आने वाली विपत्तियों, आकर्षण, विकर्षण और उच्चाटन से मानव को मुक्ति प्रदान करती है. मां तारा की साधना पूर्ण रूपेण अघोरी साधना है. इस साधना से मनुष्य को लौकिक सुख, शांति और समृद्धि प्राप्त होती है. तंत्रशास्त्र को हिंदू धर्म के विश्वकोष के रूप में मान्यता प्राप्त है. यह तंत्र ग्रंथ सम्वाद के रूप में प्रसिद्ध है, जिसमें वक्ता भोले बाबा शिव जी, श्रोता स्वयं जगदम्बा मां पार्वती जी हैं. भगवान शिव को इसमें आगम कहकर और मां पार्वती को निगम कहकर पुकारा गया है. महानिर्वाण तंत्र में भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा कि कलिदोश के कारण द्विज लोग वैदिक कृत्यों के द्वारा युक्ति लाभ करने में समर्थ्य नहीं होंगे. वैदिक कर्म और मंत्र निर्विश सर्प की तरह शक्तिहीन हो जाएगी, तब मानव तंत्रशास्त्र द्वारा कल्याण का मार्ग ढूंढेगा. तंत्र धर्म एक प्राचीन धर्म है. श्रीमद्भागवत के 11वें तीसरे, स्कंद पुराण के चौथे अध्याय, बह्यपुराण, वाराह पुराण आदि में उल्लेखित है कि देवोपासना तांत्रिक विधि से करनी चाहिए. महाभारत के शांतिपूर्ण, अध्याय 259 तथा अध्याय 284 श्लोक 74वां, 120, 122, 124, में इस बात की चर्चा है. शंकर संहिता, स्कंद पुराण के एक भाग एवं रामायण में भी तांत्रिक उपासना का उल्लेख है. शिव के अहंकार को मिटाने के लिए माता पार्वती ने उन्हें दशों दिशाओं में काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, बगंलामुखी, भैरवी, कमला, धूमावती, मातंगी, छिन्नमस्तका के रूप में दर्शन दिया. इस तरह दश विद्याओं द्वारा शक्ति का अवतरण शिव का अहंकार नाश करने वाला हुआ. मां तारा दश विद्या की अधिष्ठात्री देवी है. हिंदू धर्म में तंत्र साधना का बहुत महत्व है. तंत्र साधना के लिए विंध्यक्षेत्र प्रसिद्ध है, जहां साधक वामपंथी साधना की अधिष्ठात्री देवी मां तारा की साधना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं. तंत्र साधना का स्थल तारापीठ भारत के अनेक क्षेत्रों में स्थापित है, जहां वामपंथ की साधना की जाती है. यह पीठ विशेष स्थान माया नगरी (बंगाल) और असम (मोहनगरी) में भी है. आद्यशक्ति के महापीठ विंध्याचल में स्थित तारापीठ का अपना अलग ही महत्व है. विंध्य क्षेत्र स्थित तारापीठ मां गंगा के पावन तट पर श्मशान के समीप है. श्मसान में जलने वाले शव का धुआं मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के कारण इस पीठ का विशेष महत्व है. इस पीठ में तांत्रिकों को शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है, ऐसा साधकों की मान्यता है. इस मंदिर के समीप एक प्रेत-शिला है, जहां लोग पितृ पक्ष में अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंड दान करते हैं. इसी स्थल पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने भी अपने पिता का तर्पण, पिंडदान किया था. यह विंध्याचल के शिवपुर के राम गया घाट पर स्थित है. यहां स्थित मां तारा आद्यशक्ति मां विंध्यवासिनी के आदेशों पर जगत कल्याण करती है. इस देवी को मां विंध्याचल की प्रबल सहायिका एवं धाम की प्रखर प्रहरी की भी मान्यता प्राप्त है. देवीपुराण के अनुसार, मां तारा देवी जगदम्बा विंध्यवासिनी की आज्ञा के अनुसार विंध्य के आध्यात्मिक क्षेत्र में सजग प्रहरी की तरह मां के भक्तों की रक्षा करती रहती है. साधक साधना की प्राप्ति के लिए प्राय: दो मार्ग को चुनता है. प्रथम मंत्र द्वारा साधना, द्वितीय तंत्र (यंत्र) द्वारा साधना. सतयुग एवं त्रेता युग में मंत्र की प्रधानता थी. प्राय: मंत्रों की सिद्धि साधक को हो जाती थी. हालांकि द्वापर से अब तक साधना का सर्वोत्तम स्वरूप तंत्र को माना जाने लगा है. तंत्र साधना के लिए नवरात्रि में तारापीठ आकर मां तारा को श्रद्धा से प्रणाम करके तांत्रिक साधना प्रारंभ होता है. इसके लिए आवश्यक है कि साधक अपनी साधना योग्य गुरु के संरक्षण में ही शुरू करें. इस वाममार्ग में सर्वोत्तम यंत्र श्रीयंत्र राज ही माना जाता है. श्रीयंत्र की साधना के लिए पंच मकार की प्रधानता बताई गई है, जैसे -मत्स्य, मदिरा, मांस, मैथुन और मज्जा. साधक पंचमकार के चार वस्तुओं से श्रीयंत्र को सुनियोजित करता है तथा भैरवी का चुनाव करता है, जिस पर तंत्र की सिद्धि की जाती है. भैरवी के चुनाव की प्रक्रिया भी कठिन है. यह चुनाव सामान्य स्त्रियों में से नहीं होता, वही स्त्री भैरवी के रूप में प्रयोग की जाती है, जिसका भग सुडौल एवं सुंदर हो, या तो वह ब्रह्यचारिणी हो अथवा एक पति भोग्या हो. रात्रि के द्वितीय पहर में साधक श्रीयंत्र की पूजा करके इस पूजा की वस्तु मत्स्य, मांस, मज्जा एवं मदिरा भैरवी को खिलाता है. जब भैरवी मत्स्य, मांस, मज्जा और मदिरा का पान करके मस्त हो जाती है, तब श्रीयंत्र पर इसे आसीन करके तारा मंत्र का जाप किया जाता है. यह जाप रात्रि के तृतीय पहर तक चलता है. इस मंत्र के पूरा होते ही भैरवी के शरीर के रोएं खड़े हो जाते हैं और वह रौद्र रूप में खड़ी हो जाती है. उसके मुख से ज़ोर-ज़ोर से कुछ अस्पष्ट शब्द निकलने लगते हैं. ऐसी स्थिति में साधक के लिए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वह भयभीत न हो. उस समय साधक को अपने प्रिय गुरुके शरणागत होकर उनको स्मरण करना चाहिए तथा पावन श्मशान की भस्म को अपने शरीर पर मलना चाहिए. इन दोनों क्रियाओं के करने पर भैरवी प्रसन्न होकर अट्ठहास करने लगती है. तत्काल साधक को अपने गुरु की सच्ची शपथ लेकर इस महाभैरवी को विश्वास दिलाना चाहिए कि वह इस (भैरवी) द्वारा प्राप्त सिद्धि का किसी अकल्याण के लिए प्रयोग नहीं करेगा. वह किसी भी स्थिति में उच्चाटन, मारण तथा आकर्षण-विकर्षण की क्रिया नहीं करेगा. फिर भी साधक इस भैरवी से उच्चाटन या मारण का काम लेता है, तो ऐसे में वह सिद्धि एक-दो बार ही इस साधक के आदेश पालन करेगी. इसे पेशेवर के रूप में साधक द्वारा प्रयोग करने पर यह स्वयं उसी के लिए आत्मघाती हो सकती है, जिसका दुष्परिणाम यह हो सकता है कि साधक विक्षिप्त या पागल हो सकता है. ऐसा प्राय: देखने को मिला है. कभी-कभी निरंकुश साधक को अपने प्राण से भी हाथ धोना पड़ा है. भैरवी से कार्य लेने के उपरांत साधक को लाल या काले फूलों से भैरवी की पूजा करनी चाहिए. पुन: रात्रि के चतुर्थ प्रहर में पशु के मांस एवं रक्त से तारा को आवाहित कर उनके मंत्र का जाप करना चाहिए, जैसा दुर्गा सप्तशती के बैकृतिक रहस्य के श्लोक 27 में रूधिरा रक्तेन, वलिनां मां तेन का उल्लेख मिलता है. मां तारा की पूजा पूरी तरह से वाम मार्गिक साधना है. इस वामपंथ की साधना की एक यह कहानी है कि जब जन्मेजय के नागयज्ञ को विशेष परिस्थिति में अधूरा छोड़ दिया गया, तो कुपित अग्निदेव ने श्राप दिया कि भविष्य में तुम्हारे यज्ञ सफल नहीं होंगे. तब भगवान शिव ने माता पार्वती को तंत्र साधना के गूढ़ रहस्य के बारे में बताया, जो मानव के लिए शीघ्र फलदायी है. इस साधना की सिद्धि में त्रुटि क्षम्य नहीं है. विंध्यक्षेत्र में तारापीठ के साथ भैरव कुंड, महाकाली का खोह भी साधना के लिए उपयुक्त स्थल है, जहां नवरात्रि में अष्टमी के रात्रि में साधकों की भारी भीड़ जुटती है, पूरा विंध्य पर्वत साधकों से सज उठता है. विंध्य क्षेत्र में आज भी तांत्रिकों की अधिष्ठात्री देवी मां तारा अपने अनन्य सहयोगी महाभैरव (काल भैरव और लाल भैरव) एवं अपनी सहेली महाकाली के साथ विंध्य क्षेत्र में स्थित श्रीयंत्र राज की रक्षा करती रहती है. यह विश्व कीउत्पत्ति एवं संहार का प्रतिबिम्ब है, जिस पर त्रिपुरसुंदरी मां महालक्ष्मी स्वरूपा जगदम्बा विंध्यवासिनी आसीन होकर देव-दानव सहित संपूर्ण प्राणी मात्र का कल्याण किया करती
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