Thursday, August 27, 2015



MAYABEEJ रहस्य




ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म तदेवाहुश्चह्रींमयं
द्वेबीजे मममन्त्रौसतो मुख्यत्वेनसुरोतमे
साधना के अद्भुत क्षेत्र में, मंत्र और यंत्रो की सहायता से एक निश्चित प्रक्रिया को पूर्ण करने की सुव्यवस्थित क्रिया को ही तंत्र कहा जाता है. निश्चय ही पूर्ण तंत्रोक्त प्रक्रियाओ की आधारभूत शक्ति मन्त्र रहे है, और मंत्रो का आधार वर्ण तथा बीज. और इन्ही बीज अक्षरों तथा बीज मंत्रो का आपसमे संयोजन हो कर विविध मन्त्र श्री सदाशिव के मुख्य से जनमानस के कल्याण हेतु प्रकट हुवे.
तंत्र के क्षेत्र में सभी बीज मंत्रो का एक अत्यधिक विशिष्ट स्थान है तथा साधको के मध्य बीज मंत्रो का महत्त्व अपने आप में प्रख्यात है ही. यहाँ पर एक बात ध्यान देना आवश्यक है की क्यों इन बीज मंत्रो को इतना ज्यादा महत्त्व दिया जाता है. सर्व प्रथम यह बात को समजना चाहिए की मंत्रो का आधार ध्वनि है, स्वर तथा अक्षर ही मानस की तरंगों को ध्वनि में परावर्तित करते है. चाहे वह मानसिक रूप से भी क्यों न हो, क्यों की हमारे अंदर की कोई भी क्रिया एक निश्चित ध्वनि को जन्म देती ही है, हमारी सुनने की एक क्षमता है. जिसके आगे हम सुन नहीं सकते है इस लिए शरीरस्थ सभी ध्वनि हम सुन नहीं पाते है. लेकिन ध्वनि का उद्भव होता है और वह ध्वनि एक उर्जा का निर्माण करती है. हर एक ध्वनि एक विशेष उर्जा का निर्माण करती है. इसी लिए मानसिक जाप की सूक्ष्म ध्वनि भी शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा का निर्माण करती है. वैसे तो वर्ण और बीज के ऊपर प्रचुर मात्र में तांत्रिक साहित्य हमारे ऋषि मुनियों द्वारा लिखा गया था लेकिन काल क्रम में वह लुप्त होने लगा. फिर भी तंत्रोक्त उपासना में बीज मंत्रो की अनिवार्यता को किसी भी काल में ज़रा सभी नकारा नहीं गया और फल स्वरुप कई सुविख्यात बीज मंत्र आज जनमानस के मध्य में प्रचलित है, जिसमे ॐ तथा श्रीं सबसे ज्यादा प्रचलित रहे है लेकिन इनके जुड़े हुवे सिद्धि पक्ष विविध साधना पद्धतियाँ तथा इनसे सबंधित विविध रहस्य काल क्रम में जरुर लुप्त होने लगे है.
तंत्र क्षेत्र के किसी भी साधक को बीज मन्त्र ‘ह्रीं’ के महत्त्व को समजाने की आवश्यकता ही नहीं है. यह बीज हमेशा ही साधको का प्रिय बीज रहा है जो की कई कई रहस्यों से परिपूर्ण है. उपरोक्त पंक्तियाँ इसी बीज मन्त्र के सबंध में है. जिसमे सदाशिव देवी को एक नूतन तंत्र ज्ञान देते है; जिसका अर्थ कुछ इस प्रकार है
एक अक्षर ॐ ही ब्रह्म है जो की सदैव ह्रीं से परिपूर्ण है. अर्थात ॐ तथा ह्रीं दोनों ही एक दूसरे के पूरक है. दोनों ही बीज देव के मूल स्वरुप अर्थात ब्रह्म स्वरुप है. जिसमे एक भाग पुरुष है (ॐ) तथा दूसरा भाग प्रकृति (ह्रीं).
इस श्लोक का विश्लेषण करने पर व्यक्ति कई तथ्यों के बारे में समज सकता है. ब्रह्म एक पूर्ण सत्ता है, जिसके दो मुख्य भाग शिव तथा देवी के स्वरुप में है. तथा इन दोनों को सम्मिलित रूप से देखने पर यह ब्रह्म स्वरुप द्रष्टिगोचर होता है लेकिन विखंडित रूप में यह शिव और शक्ति है. ध्वनि रूप में शिव ॐ रूप में है वहीँ ध्वनि स्वरुप में शक्ति ह्रीं रूप में है.
वैसे यह श्लोक का प्रकट या प्रथम अर्थ है. तांत्रिक वाग्मय में सप्तार्थी श्लोक होते है, एक ही बीज, मन्त्र या श्लोक के सूक्ष्म से सूक्ष्मतम खोज करने पर सात अलग अलग अर्थ की प्राप्ति होती है, जिसमे प्रकट अर्थ स्वरुप की अभिव्यक्ति होता है; बाकी सभी अर्थ गुरुगम्य होते है. यही कारण है की कई बार पुरातन साहित्य इत्यादि में प्रकट साधना न दे कर सिर्फ संज्ञा दे दी गई होती है जिसका गूढार्थ सिर्फ सिद्ध गुरु के माध्यम से ही समजा जा सकता है. इसी प्रकार उपरोक्त श्लोक में भी ब्रह्म स्वरुप की साधना क्रम को बीज मंत्रो से वर्णित किया गया है जो की पृथक विषय है. यहाँ पर हम ह्रीं बीज के बारे में ही आगे चर्चा करते है.
ह्रीं मन्त्र का स्वरुप कुछ है. यह बीज ह, र, इ तथा चन्द्र (ँ ) जो की अनुस्वर की भावना देता है. इन अक्षरों के व्यापक अर्थ है. तथा कई सिद्धो ने इसकी विविध व्याख्या की है. लेकिन जो सर्वजन मान्य है वह यह है की
हकारशिववाचि; ह अर्थात शिव,
रेफः प्रकृतिरच्यते; र प्रकृति सूचक है,
महामायार्थ इ शब्दा; इ महामाया का प्रतिक है
तथा नादोविश्वप्रसूः स्मृत चन्द्र ब्रह्म नाद का प्रतिक है.
इस प्रकार इसका एक अर्थ यह होता है की शिव तथा प्रकृति अर्थात देवी प्रदत महामाया का वास्तविक अर्थ समजाने वाला यह ब्रह्मनाद या ब्रह्मांडीय ध्वनि का यह बीज है.
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