योनि पुजा ही तंत्र का मेरूदणड....
समाज में आज योनी पुजा की बात करे तो मनुष्य उसको नकारात्मक दृष्टी से देखना शुरू कर देते है । जो मनुष्य योनि पूजा को नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं, परमात्मा उन्हें सदवुद्धी दे । कृपा करे यैसे अज्ञानीओं पे ।
उन्हें पता ही नहीं कि वह जननी शक्ति, श्रृष्टि शक्ति को नकारात्मक दृष्टि से देख रहे हैं । देवो के देव महादेव उनपर कृपा बरसाये रखे जो योनि पूजा का महत्व जानते हीं नही हैं । उन्हें इस सत्यता का पत्ता ही नहीं हैे की योनी पूजा के बिना कोई भी साधना पूर्ण नहीं है ।
शक्ती और शव की बहूत बडी कृपा है की हमें ये अति महत्वपूर्ण ज्ञान दिया और हमे शक्ति साधक बनाया ।
योनिपूजा से ही हम भैरवी साधना, शक्ति साधना, कुंडलिनी साधना और भी बहूत साधना मार्ग पर अग्रसर हो सकते है र सफलता प्राप्त कर सकते है ।
लिंग पूजा पूरे विश्व में होती है । सभी बड़ी ख़ुशी के साथ करते हैं, पर योनिपूजा के नाम पर नाक भौं सिकुड़ता है । जबकि सम्पूर्ण विश्व का मूल उत्पत्ति कारक यही योनी है । आज हम मनुष्य सत्यता को अनदेखा कर रहे है । इसे मूर्खता और छुद्र मानसिकता नहीं कहेगे तो और क्या कहेंगे ।
जो मनुष्य काम भावना से परेशान हैं ।
कामुकता से पीड़ित हैं । ना चाहते हुए भी दिमाग काम वासना की ओर ही जाता है । पूजा पाठ में भी भावना शुद्ध नहीं तह पाती । कामुकता जगती है । अपराधबोध उपजता है ।
यैसे मनुष्य इन सब से मुक्ति चाहते है तो इनको साधना करना बहूत जरूरी है । कामुक्ता से मुक्ती और शक्ति प्राप्ती के लिए भैरवी तंत्र मार्ग सर्वोत्तम मार्ग है ।
प्राकृतिक नियमो पर आधारित ये साधना मनुष्य को काम उर्जा मोक्ष तक पहुचा सकती है । अन्य कोई साधना मार्ग से काम बासना मुक्ति का रास्ता बहूत ही कठीन है ।
स्कन्द पुराण में भगवान् शिव ने ऋषि नारद को नाद ब्रह्म का ज्ञान दिया था और मनुष्य देह में स्थित चक्रों और आत्म ज्योति रूपी परमात्मा के साक्षात्कार का मार्ग बताया था । स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर प्रत्येक मनुष्य के अस्तित्व में हैं । सूक्ष्म शारीर में मन और बुद्धि हैं ।
मन सदा संकल्प -विकल्प में लगा रहता है । बुद्धि अपने लाभ के लिए मन के सुझावों को तर्क -वितर्क से विश्लेषण करती रहती है । कारण या लिंग शरीर ह्रदय में स्थित होता है जिसमें अहंकार और चित्त मंडल के रूप में दिखाई देते हैं ।
अहंकार अपने को श्रेष्ठ और दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करता है और चित्त पिछले अनेक जन्मों के घनीभूत अनुभवों को संस्कार के रूप में संचित रखना चाहाता है ।
आत्मा जो एक ज्योति है । इस से परे है किन्तु आत्मा के निकलते ही स्थूल शरीर से सूक्ष्म और कारण शरीर अलग हो जाते हैं । कारण शरीर को लिंग शरीर भी कहा गया हैं । क्योंकि इसमें निहित संस्कार ही आत्मा के अगले शरीर का निर्धारण करता हैं । आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति महादेव ने बतायी है ।
पिछले कर्म द्वारा प्रेरित जीव आत्मा, वीर्य जो की खाए गए भोजन का सूक्ष्मतम तत्व है, के रूपप में परिणत हो कर माता के गर्भ में प्रवेश करता है । जहाँ मान के स्वभाव के अनुसार उसके नए व्यक्तित्व का निर्माण होता है ।
गर्भ में स्थित शिशु अपने हाथों से कानों को बंद करके अपने पूर्व कर्मों को याद करके पीड़ित होता है । और अपने को धिक्कार कर गर्भ से मुक्त होने का प्रयास करता है । जन्म लेते ही बाहर की वायु का पान करते ही वह अपने पिछले संस्कार से युक्त होकर पुरानी स्मृतियों को भूल जाता है ।
शरीर में सात धातु हैं । त्वचा, रक्त, मांस वसा, हड्डी, मज्जा और वीर्य (नर शरीर में ) या रज (नारी शरीर में ) । देह में नो छिद्र हैं । दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, मुख, गुदा और लिंग । स्त्री शरीर में दो स्तन और एक भग यानी गर्भ का छिद्र अतिरिक्त छिद्र हैं ।
स्त्रियों में बीस पेशियाँ पुरुषों से अधिक होती हैं । उनके वक्ष में दस और भग में दस और पेशियाँ होती हैं ।
योनी में तीन चक्र होते हैं तीसरे चक्र में गर्भ शैय्या स्थित होती है । लाल रंग की पेशी वीर्य को जीवन देती है । शरीर में एक सौ सात मर्म स्थान और तीन करोड़ पचास लाख रोम कूप होते हैं । जो व्यक्ति योग अभ्यास में निरत रहता है वह नाद ब्रह्म और तीनों लोकों को सुखपूर्वक जानता और भोगता है ।
मूल आधार स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार नामक सात ऊर्जा केंद्र शरीर में है । जिन पर ध्यान का अभ्यास करने से देवीय शक्ति प्राप्त होती है ।
सहस्रार में प्रकाश दीखने पर वहां से अमृत वर्षा का सा आनंद प्राप्त होता है । जो मनुष्य शरीर की परम उपलब्धि है । जिसको अपने शरीर में दिव्य आनंद मिलने लगता है । वह फिर चाहे भीड़ में रहे या अकेले में, चाहे इन्द्रियों से विषयों को भोगे या आत्म ध्यान का अभ्यास करे । उसे सदा परम आनंद और मोह से मुक्ति का अनुभव होता है ।
मनुष्य का शरीर अनु, परमाणुओं के संघटन से बना है । जिस तरह अणु, परमाणु सदा गति शील रहते हैं । किन्तु प्रकाश एक ऊर्जा मात्र है जो कभी तरंग और कभी कण की तरह व्यवहार करता है ।
उसी तरह आत्म सूर्य के प्रकाश से भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक है । यह इस तरह सिद्ध होता है की सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक आने में कुछ मिनट लगते हैं । जब की मनुष्य उसे आँख खोलते ही देख लेता है ।
अतः आत्मा प्रकाश से भी सूक्ष्म है । जिसका अनुभव और दर्शन केवल ध्यान के माध्यम से ही होता है । जब तक मन उस आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर लेता उसे मोह से मुक्ति नहीं मिल सकती ।
मोह मनुष्य को भय भीत करता है । क्योंकि जो पाया है उसके खोने का भय उसे सताता रहता है । जबकि आत्म दर्शन से दिव्य प्रेम की अनुभूति होती है । जो व्यक्ति को निर्भय करती है क्योंकि उसे सब के अस्तित्व में उसी दिव्य ज्योति का दर्शन होने लगता है ।
नोटः-
शुद्ध उच्चारण के साथ किसी साधक के मार्गदर्शन में इन मंत्रों का प्रयोग करना ही लाभकर होगा।यदि किसी भी प्रकार की दिक्कते हो,तो मुझसे सम्पर्क कर सकते है।
आप सभी को मेरी शुभकामनाएं साधना करें साधनामय बनें......
साधको को सूचित किया जाता हैं की हर चीज की अपनी एक सीमा होती हैं , इसलिए किसी भी साधना का प्रयोग उसकी सीमा में ही रहकर करे , और मानव होकर मानवता की सेवा करे अपने जीवन को उच्च स्तर पर ले जाएँ ,.
.चेतावनी -
सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।
बिना गुरू साधना करना अपने विनाश को न्यौता देना है बिना गुरु आज्ञा साधना करने पर साधक पागल हो जाता है या म्रत्यु को प्राप्त करता है इसलिये कोई भी साधना बिना गुरु आज्ञा ना करेँ ।
विशेष -
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राजगुरु जी
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(रजि.)
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