योनि मुद्रा.........
यौगिक दृष्टि से मनुष्य के अंदर कई प्रकार के रहस्यमयी शक्ति छिपी हूई है । इन शक्ति को शरीर के अन्तर छिपाकर रखने वाली मुद्रा का नाम ही ‘योनि मुद्रा’ है । तत योग के अनुसार केवल हाथों की उंगलियों से महाशक्ति भगवती की प्रसन्नता के लिए योनि मुद्रा प्रदर्शित करने की आज्ञा है ।
प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव लंबी योग साधना के अंतर्गत तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना से भी दृष्टिगोचर होता है । इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से साधक की प्राण-अपान वायु को मिला देने वाली मूलबंध क्रिया को भी साथ करने से जो स्थिति बनती है, उसे ही योनि मुद्रा की संज्ञा दी गयी है । यह एक बड़ी चमत्कारी मुद्रा है ।
पद्मासन की स्थिति में बैठकर, दोनों हाथों की उंगलियों से योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं ।
ऋषिमुनियों के अनुसार जिस योगी को उपरोक्त स्थिति में योनि मुद्रा का लगातार अभ्यास करते-करते सिद्धि प्राप्त हो गई है । उसका शरीर साधनावस्था में भूमि से आसन सहित ऊपर अधर में स्थित हो जाता है ।
इस मुद्रा का प्रयोग साधना में शाक्ति को द्रवित किये जाने के लिये किया जाता है । भगवती की साधना में उन्हें प्रसन्न करने के लिए इस मुद्रा का प्रदर्शन उनके सम्मुख किया जाता है । पंचमकार साधना में मुद्रा का अति आवश्यक स्थान होता है ।
योग तन्त्र का पूरा आधार गुढ़ रहस्यमयी है । जिसको समझना बहूत कठीन है । इस के जितने गहराई में जाये उतनी ही उलझने सामने आती रहती है । जितना भी समज आये कम ही है ।
सदियों से साधक ने इस आधार को समझाने की कोशिश की है और अत्यधिक से अत्यधिक ज्ञान प्राप्त करने पर भी उसके सभी पक्षों की खोज नही कर पाये है । वह आधार है कुण्डलिनी शक्ति जागरण की । कुण्डलिनी के जितने भी पक्ष अब तक विविध साधकों, ऋषिमुनी ने सामने रखे है ।
वह मनुष्यों को उसकी शक्ति के परिचय के लिए पर्याप्त है । सामान्य रूप मे साधको के मध्य कुण्डलिनी का षट्चक्र जागरण ही प्रचलित है । लेकिन उच्चकोटि के योगियों का कथन है की सहस्त्रारजागरण तो कुण्डलिनी जागरण की शुरुआत मात्र है ।
उसके बाद ह्रदयचक्र, चित चक्र, मस्तिस्क चक्र, सूर्यचक्र जागरण जैसे कई चक्रों की अत्यधिक दुस्कर सिद्धिया है । जिन के बारे मे सामान्य मनुष्यों को भले ही ज्ञान न हो लेकिन इन एक एक चक्रों के जागरण के लिए उच्चकोटि के साधकों एवं ऋषिमुनी बर्षो तक साधना करते रहते है
। इस प्रकार यह कभी न खत्म होने वाला एक अत्यधिक गुढ़ विषय है । इसी क्रम मे आज हमारे तंत्र के धरातल पे अलग अलग बहूत से विधान प्रचलित है ।
योग तन्त्र के मध्य कायाकल्प के लिए एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विधान है । कायाकल्प और सौंदर्य का सही अर्थ क्या है ? यह मात्र काया को सुन्दर बनाने की कोई विधि मात्र नही है ।
यह आत्मा की निर्मलता से ले के पाप मुक्त हो के आनंद प्राप्ति की क्रिया है । अगर साधक आतंरिक चक्रों के दर्शन की प्रक्रिया कुण्डलिनी के वेग मार्ग से करता है । तब उसे मूलाधार से आगे बढ़ते ही एक त्रिकोण द्रष्टिगोचर होता है । जो की आतंरिक योनी है ।
मनुष्यका ह्रदय पक्ष और स्त्री भाव इस त्रिकोण पर निर्भर करता है । और उसके ऊपर मणिपुर चक्र के पास एक लिंग ठीक उस त्रिकोण अर्थात योनी के ऊपर स्थिर रहता है । जो की व्यक्ति के मस्तिष्क पक्ष और पुरुष भाव से सबंधित होता है ।
यह त्रिकोण और लिंग से एक पूर्ण शिवलिंग का निर्माण होता है । जिसे योग-तन्त्र मे आत्मलिंग कहा गया है । इस लिंग के दर्शन करना अत्यधिक सौभाग्य सूचक और सिद्धि प्रदाता है । शिवलिंग के अभिषेक के महत्व के बारे मे हर व्यक्ति जनता ही है ।
इसी क्रम मे साधक इस लिंग का भी अभिषेक करे तो आत्मलिंग से जो उर्जा व्याप्त होती है । वह पुरे शरीर मे फ़ैल कर आतंरिक शरीर का कायाकल्प कर देती है ।
उसके बाद साधक निर्मल रहता है । उसके चेहरे पर और वाणी मे एक विशेष प्रभाव आ जाता है । साधक एक हर्षोल्लास और आनंद मे मग्न रहता है और कई सिद्धिया उसे स्वतः प्राप्त हो जाती है ।
योगतन्त्र मे इस दुर्लभ विधान की प्रक्रिया निम्न दी गयी है । यथा संभव इस अभ्यास को साधक ब्रम्ह मुहूर्त मे ही करे । अगर यह संभव न हो तो कोई ऐसे समय का चयन करे जब शान्ती हो और अभ्यास के मध्य कोई विघ्न ना आये ।
साधक पहले अपनी योग्यता से सोऽहं बीज के साथ अनुलोम विलोम की प्रक्रिया करे । उसके बाद भस्त्रिका करे । अनुभव मे आया है की जब साधक २ मिनट मे १२० बार पूर्ण भस्त्रिका करे तब उसे कुछ समय आँखे बांध करने पर कुण्डलिनी का आतंरिक मार्ग कुछ क्षणों तक दिखता है ।
इस समय मे साधक को
"।। ॐ आत्मलिंगायै हूं ।।"
का सतत जाप करते रहना चाहिए । नियमित रूप से जाप करते रहने से वह लिंग धीरे धीरे स्पष्ट दिखाई देने लगता है । जब वह पूर्ण रूप से दिखाई देने लग जाए तब आत्मलिंग के ऊपर अपनी कल्पना के योग्य
"।। ॐ आत्मलिंगायै सिद्धिं फट ।।"
मंत्र द्वारा अभिषेक करे । जिसे आँखों के मध्य हम बहार देखते है । चित के माध्यम से शरीर उसे अंदर देख सकता है ।
चित, द्रष्टि के द्वारा पदार्थो का आतंरिक सर्जन करता है और उसे ही मस्तिक के माध्यम से बिम्ब का रूप समज कर हम बहार देखकर महसूस करते है ।
इस प्रक्रिया मे चित का सूक्ष्म सर्जन ही मूल सर्जन की भाव भूमि का निर्माण करता है । इस लिए अभिषेक करते वक्त चित मे से निकली हुयी अभिषेक की कल्पना सूक्ष्मजगत मे मूल पदार्थ की रचना करती ही है ।
जिससे साधक जो भी अभिषेक विधान की प्रक्रिया करता है वो साधक के लिए भले ही कल्पना हो । सूक्ष्म जगत मे उसका बराबर अस्तित्व होता ही है । अभिषेक का अभ्यास शुरू होते ही साधक का कायाकल्प भी शुरू हो जाता है । "लिंग" का सामान्य अर्थ "चिन्ह" होता है । इस अर्थ में लिंग पूजन, शिव के चिन्ह या प्रतीक के रूप में ही होता है ।
अब मानसपटल पे सवाल उठता है कि लिंग पूजन केवल शिव का ही क्यों होता है ? अन्य देवताओं का क्यों नहीं ? कारण यह है कि शिव को आदि शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है । जिसकी कोई आकृति नहीं है ।
इस रूप में शिव निराकार है । लिंग का अर्थ ओंकार ( ॐ ) बताया गया है । “प्रणव तस्य लिंग ” उस ब्रह्म का चिन्ह प्रणव, ओंकार है ।
अतः "लिंग" का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं है । उनके पहचान चिह्न से है । जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है । यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है ।
साधना काल के दौरान आपको कुछ आश्चर्य जनक अनुभव हो सकते हैं, पर इनसे न परेशान या बिचलित न हो , ये तो साधना सफलता के लक्षण हैं .
चेतावनी -
सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।
बिना गुरू साधना करना अपने विनाश को न्यौता देना है बिना गुरु आज्ञा साधना करने पर साधक पागल हो जाता है या म्रत्यु को प्राप्त करता है इसलिये कोई भी साधना बिना गुरु आज्ञा ना करेँ ।
चेतावनी -
सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ । बिना गुरू साधना करना अपने विनाश को न्यौता देना है
विशेष -
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राजगुरु जी
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