क्रोध भैरव साधना
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तंत्र के क्षेत्र में भगवान भैरव का स्थान तो अपने आप में निराला है, यह देव अपने साधकोको शीघ्र सिद्धि एवं कल्याण प्रदान करने के कारण सदियों से महत्वपूर्ण उपास्य देव रहे है.
भगवान शिव के स्वरुपसमही उनके ये विविध रूप, सभी स्वरुप अपने आप में निराले तथा विलक्षण, तंत्र के क्षेत्र में भैरव के यूँ तो ५२ रूप प्रचलित है लेकिन ८ रूप मुख्यरूप से ज्ञात है. इनको संयुक्त रूप से अष्ट भैरव के नाम से जाना जाता है.
वस्तुतः भगवान भैरव से सबंधित कई कई प्रकार की तांत्रिक साधना विविध मत के अंतर्गत होती आई है. कापालिक, नाथ, अघोर इत्यादि साधना मत में तो भगवान भैरव का स्थान बहोत ही उच्चतम माना गया है. तंत्र में जहां एक और गणपति को विघ्न निवारक के रूप में पूजन करना अनिवार्य क्रम है तो साथ ही साथ सिद्धो के मत से किसी भी साधना के लिए भैरव पूजन भी एक अनिवार्य क्रम है क्यों की यह रक्षात्मक देव है जो की साधक तथा साधक के साधना क्रम की सभी रूप में रक्षा करते है.
वस्तुतः भैरव को संहारात्मक देवता के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है जिसके कारण सामान्य जनमानस के मध्य इनको भय की द्रष्टि से देखा जाता है लेकिन इनकी संहारात्मक प्रकृति साधक के लिए नहीं वरन साधक के शत्रु तथा कष्टों के लिए होती है तथा इसी तथ्य का अनुभव तो कई महासिद्धो ने अपने जीवन में किया है, आदि शंकराचार्य गोरखनाथ से ले कर सभी अर्वाचीन प्राचीन सिद्धोने एक मत में भगवान भैरव की साधना को अनिवार्य तथा जीवन का एक अति आवश्यक क्रम माना है.
यूँ तो भगवान भैरव से सबंधित कई कई प्रकार के प्रयोग साधको के मध्य है ही तथा इसमें भी बटुकभैरव एवं कालभैरव स्वरुप तो तंत्र साधको के प्रिय रहे है लेकिन साथ ही साथ भैरव के अन्य स्वरुप भी अपनी एक अलग ही विलक्षणता को लिए हुवे है.
भगवान क्रोध भैरव के सबंध में भी ऐसा ही है. यह स्वरुप क्रोध का ही साक्षात स्वरुप है अर्थात पूर्ण तमस भाव से युक्त स्वरुप. यह स्वरुप पूर्ण तमस को धारण करने के कारण साधक को अत्यधिक तीव्र रूप से तथा तत्काल परिणाम की प्राप्ति होती है. इनकी उपासना शत्रुओ के मारण, उच्चाटन, सेना मारण आदि अति तीक्ष्ण क्रियाओं के लिए होती आई है.
वस्तुतः इनकी साधना इतनी प्रचलित नहीं है इसके पीछे भी कई कारण है, खास कर इनकी संहारात्मक प्रकृति. इसी लिए भयवश भी इनकी साधना साधक नहीं करते है, साक्षात् तमस का रूप होने के कारण इनके प्रयोग असहज भी है तथा थोड़े कठिन भी.
प्रस्तुत साधना भगवान के इसी स्वरुप की साधना है जिसको पूर्ण कर लेने पर साधक इसका प्रयोग अपने किसी भी शत्रु पर कर उसको जमींन चटा सकता है, शत्रु के पुरे घर परिवार को भी तहस महस कर सकता है, यह प्रयोग भी सिर्फ सिद्धो के मध्य ही प्रचलित रहा है क्यों की भले ही यह प्रयोग उग्र है लेकिन इसमें ज्यादा समय नहीं लगता है तथा एक बार साधना सम्प्पन कर लेने पर साधक उससे जीवन भर लाभ उठा सकता है.
आज के युग में जहां एक तरफ असुरक्षा सदैव ही साधक पर हावी रहती है तथा पग पग पर ज्ञात अज्ञात शत्रुओ का जमावडा लगा हुआ है तब एसी स्थिति में इस प्रकार के प्रयोग अनिवार्य ही है, इस लिए उग्र प्रयोग होने के कारण भी इस प्रयोग को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे की आवश्यकता पड़ने पर साधक अपने जीवन की तथा अपने परिवार की गरिमा को रख सके तथा पूर्ण सुरक्षा को प्राप्त कर सके.
यह प्रयोग अत्यधिक तीव्र प्रयोग है अतः साधक अपनी विवेक बुद्धि के अनुसार स्वयं की हिम्मत आदि के बारे में सोच कर ही प्रयोग करे, प्रयोग के मध्य साधक को तीव्र अनुभव हो सकते है.
साधक को अगर कोई व्यक्ति अत्यधिक परेशान कर रहा हो तथा बिना कारण अहित किये जा रहा हो तब यह प्रयोग करना उचित है लेकिन सिर्फ किसी को बेवजह परेशान करने के उद्देश्यआदि को मन में रख कर यह प्रयोग नहीं करना चाहिए वरना साधक को इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है.
साधक को इस प्रयोग को रक्षात्मक रूप से लेना चाहिए तथा अपनी तथा घर परिवार की सुरक्षा के लिए साधक यह प्रयोग कर सकता है.
यह प्रयोग साधक किसी भी अमावस्या या कृष्ण पक्ष अष्टमी को स्मशान में या निर्जन स्थान में करे. समय रात्रि में १० बजे के बाद का रहे.
साधक काले रंग के वस्त्र को धारण करे तथा काले रंग के आसन पर बैठे. साधक का मुख दक्षिण दिशा की तरफ होना चाहिए..
साधक अपने सामने भैरव का कोई विग्रह या चित्र स्थापित करे, उस पर सिन्दूर अर्पित करे. साधक गुरु पूजन कर चित्र या विग्रह का पूजन करे. साधक लाल रंग के पुष्प का प्रयोग करे. साधक को किसी पात्र में मदिरा भी अर्पित करनी चाहिए..
इसके बाद साधक को गुरु मंत्र का जाप करना चाहिए. जाप के बाद साधक न्यास करे.
करन्यास
भ्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः
भ्रीं तर्जनीभ्यां नमः
भ्रूं मध्यमाभ्यां नमः
भ्रैं अनामिकाभ्यां नमः
भ्रौं कनिष्टकाभ्यां नमः
भ्रः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः
हृदयादिन्यास
भ्रां हृदयाय नमः
भ्रीं शिरसे स्वाहा
भ्रूं शिखायै वषट्
भ्रैं कवचाय हूं
भ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्
भ्रः अस्त्राय फट्
न्यास के बाद साधक रुद्राक्ष माला से निम्न मन्त्र की ५१ माला मन्त्र जाप करे.
ॐ भ्रं भ्रं भ्रं क्रोधभैरवाय अमुकं उच्चाटय भ्रं भ्रं भ्रं फट्
(OM BHRAM BHRAM BHRAM KRODHBHAIRAVAAY AMUKAM UCCHAATAY BHRAM BHRAM BHRAM PHAT)
मन्त्र जाप पूर्ण होने पर साधक वहीँ पर किसी पात्र में आग प्रज्वलित कर के १०८ आहुति बकरे के मांस में शराब को मिला कर अर्पित करे. भोग के लिए अर्पित की गई मदिरा वहीँ छोड़ दे. दूसरे दिन किसी श्वान को दहीं या कुछ भी अन्य खाध्य प्रदार्थ खिलाएं.
इसके बाद साधक को जब भी प्रयोग करना हो तो साधक को रात्री काल में १० बजे के बाद उपरोक्त क्रियाओं अनुसार ही पूजन आदि क्रिया कर इसी मन्त्र की १ माला मन्त्र का जाप कर १०१ आहुति शराब तथा बकरे के मांस को मिला कर देनी चाहिए.
मन्त्र में अमुकं की जगह सबंधित व्यक्ति या शत्रुका नाम लेना चाहिए जिसके ऊपर प्रयोग किया जा रहा हो, इस प्रकार करने से उस व्यक्ति का उच्चाटन हो जाता है तथा वह साधक के जीवन में कभी परेशानी नहीं डालता.
अगर साधक प्रयोग की आहुति देने के बाद निर्माल्य या भष्म को उठा कर शत्रु के घर के अंदर दाल देता है तो शत्रु का पूरा घर परेशान हो जाता है, घर के सभी सदस्यों को दुःख एवं कष्ट का सामना करना पड़ता है तथा शत्रु पूर्ण घर परिवार सहित बरबाद हो जाता है.
नोट :-
सारे प्रयोग किसी सिद्ध पुरुष या गुरु की देखरेख में ही संपन्न करे | अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि के साथ साथ कुछ गलत भी घटित हो सकता है.
राज गुरु जी
तंत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष विज्ञान अनुसंधान संस्थान
महाविद्या आश्रम (राजयोग पीठ )फॉउन्डेशन ट्रस्ट
(रजि.)
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