दस महाविद्या:
इस महाविद्याओं में पहली त्रिशक्तियों काप्रतिष्ठान जिन ग्रंथों में है उनमें से संक्षेप में कुछ ग्रंथों के नामऊपर दिए गए हैं। भुवनेश्वरी के विषय मेंभुवनेश्वरी रहस्यमुख्य ग्रंथ है। यह 26 पटलों में पूर्ण है।
पृथ्वीधराचार्य काभुवनेश्वरी अर्चन पद्धतिएक उत्कृष्ट ग्रंथ है। ये पृश्रवीधर गांविंदपाद के शिष्य शंकराचार्य केशिष्य रूप से परिचित हैं।
भुवनेश्वरीतंत्र नाम से एक मूल तंत्रग्रंथ भीमिलता हैं। इसी प्रकारराजस्थान पुरात्तत्व ग्रथमालामें पृथ्वीधर काभुवनेश्वरी महास्तोत्रमुद्रित हुआ है।
भैरवी के विषय मेंभैरवीतंत्र‘ प्रधान ग्रंथ है। यह प्राचीन ग्रंथ है। इसके अतिरिक्तभैरवीरहस्य , भैरवी सपयाविधिआदि ग्रंथ भी मिलते हैं।पुरश्चर्यार्णवनामक ग्रंथ मेंभैरवी यामलका उल्लेख है।
भैरवी के नाना प्रकार के भेद हैं-
जैसे, सिद्ध भैरवी, त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, षटकुटा भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी, इत्यादि। फ़ सिद्ध भैरवीफ़ उत्तरान्वय पीठ की देवता है।
त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता है। नित्या भैरवी पश्चिमान्वय कीदेवता है। भद्र भैरवी महाविष्णु उपासिका और दक्षिणासिंहासनारूढा है।त्रिपुराभैरवी चतुर्भुजा है। भैरवी के भैरव का नाम बटुक है।
इस महाविद्याऔर दशावतार की तुलना करने पर भैरवी एवं नृसिंह को अभिन्न माना जाता है।
‘बगलाका मुख्य ग्रंथ है -सांख्यायन तंत्र। यह 30 पटलों में पूर्ण है।
यह ईश्वर और क्रौंच भेदन का संबंद्ध रूप है। इस तंत्र कोषट् विद्यागमकहा जाता है।बगलाक्रम कल्पवल्लीनाम से यह ग्रंथ मिलता है जिसमें देवी के उद्भव का वर्णन हुआ है।
प्रसिद्धि है कि सतयुग में चारचर जगत् के विनाश के लिये जब वातीक्षीम हुआथा उस समय भगवान् तपस्या करते हुए त्रिपुरा देवी की स्तुति करने लगे।
देवीप्रसन्न होकर सौराष्ट्र देश में वीर रात्रि के दिन माघ मास में चतुर्दशीतिथि की प्रकट हुई थीं। इस वगलादेवी कोत्रैलोक्य स्तंभिनी विद्याजाता है।
घूमवती के विषय में विशेष व्यापक साहित्य नहीं है। इनके भैरव का नाम कालभैरव है।किसी किसी मत में घूमवती के विधवा होने के कारण उनका कोई भैरव नहीं है। वेअक्ष्य तृतीया को प्रदीप काल में प्रकट हुई थीं। वे उत्तरान्वय की देवताहैं।
अवतारों में वामन का धूमवती से तादात्म्य है। धूमवती के ध्यान से पताचलता है कि वे काकध्वज रथ में आरूढ़ हैं। हस्त में शुल्प (सूप) हैं। मुखसूत पिपासाकातर है।
उच्चाटन के समय देवी का आवाहन किया जाता है। फ़प्राणातोषिनीफ़ ग्रंथ में धूवती का आविर्भाव दर्णित हुआ है।
मातंगीका नामांतर सुमुखी है। मातंगी को उच्छिष्टचांडालिनी या महापिशाचिनी कहा जाता है। मातंगी के विभिन्न प्रकार के भेद हैं-
उच्छिष्टमातंगी, राजमांतगी, सुमुखी, वैश्यमातंगी, कर्णमातंगी, आदि। ये दक्षिण तथा पश्चिम अन्वय की देवता हैं।
ब्रह्मयामल के अनुसार मातंग मुनि ने दीर्घकालीन तपस्या द्वारा देवी को कन्यारूप मेंप्राप्त किया था। यह भी प्रसिद्धि है कि धने वन में मातंग ऋषि तपस्या करतेथे।
क्रूर विभूतियों के दमन के लिये उस स्थान में त्रिपुरसुंदरी के चक्षुसे एक तेज निकल पड़ा। काली उसी तेज के द्वारा श्यामल रूप धारण करकेराजमातंगी रूप में प्रकट हुईं।
मातंगी के भैरव का नाम सदाशिव है। मातंगी केविषय मेंमातंगी सपर्या , रामभट्ट कामातंगीपद्धति शिवानंद कामंत्रपद्धति है।
मंत्रपद्धतिसिद्धांतसिधु का एक अध्याय है। काशीवासी शंकर नामक एक सिद्ध उपासक सुमुखी पूजापद्धति केरचयिता थे।
शंकर सुंदरानंद नाथ के शिष्य (छठी पीढ़ी में) प्रसिद्धविद्यारणय स्वामी की शिष्यपरंपरा में थे।
राजगुरु जी
तंत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष विज्ञान अनुसंधान संस्थान
महाविद्या आश्रम (राजयोग पीठ )फॉउन्डेशन ट्रस्ट
(रजि.)
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