Saturday, January 16, 2016

परकाया प्रवेश क्या सत्य है







पुनर्जन्म की तरह परकाया प्रवेश क्या सत्य है अर्थात् एक भौतिक शरीर से दूसरे भौतिक शरीर में प्रवेश करना भी पूर्णतया सत्य है। एक बार वेदांत के महाज्ञाता आद्य शंकराचार्य का एक विदूषी महिला भारती से शास्त्रार्थ हुआ। धर्म दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान अन्य विषयों में तो जीत गए परन्तु एक विषय में शास्त्रार्थ उनको बीच में ही रोकना पड़ा। महिला ने कामशास्त्र विषय छेड़कर परिस्थिति ही बिल्कुल विपरीत कर दी थी। विषयक चर्चा के लिए शंकराचार्य जी बिल्कुल ही अबोध और अन्जान थे। व्यवहार में आए बिना इस विषय पर चर्चा करना भी उनके लिए असम्भव था। उन्होंने ज्ञान प्राप्त करने के लिए समय मांगा। इस समयावधि में उन्होंने अपने सूक्ष्म शरीर को एक राजा के शरीर प्रवेश करवाया। दो शरीरों के मिलन का अनुभव अर्जित किया और तदनुसार भारती से चर्चा करके उसको शास्त्रार्थ में पराजित किया। परकाया प्रवेश का यह एक बहुत बड़ा उदाहरण है।
हमारे दो शरीर हैं। एक स्थूल जो दृष्ट है और दूसरा सूक्ष्म शरीर जो सर्व साधारण को दृष्ट नहीं है। इसके रूप-स्वरूप की अलग-अलग तरीकों से परिकल्पनाएं की गयी हैं। परन्तु शास्त्र सम्मत सूक्ष्म शरीर की लम्बाई मात्र अंगूठे के बराबर मानी गयी है। इसका स्वरूप इतना अधिक पारदर्शी है कि प्रकाश भी उसके आर-पार जा सकता है।
जैन धर्म में सूक्ष्मतर शरीर अर्थात् आत्मा को अरूप, अगन्ध, अव्यक्त, अशब्द, अरस, चैतन्यस्वरूप और इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य कहा गया है। स्थूल और सूक्ष्म के अतिरिक्त आत्मा को धर्म में संसारी और मुक्त रूप से जाना गया है।
पुनर्जन्म और परकाया प्रवेश दोनों का वस्तुतः एक ही अर्थ है – एक को छोड़कर दूसरा नवीन शरीर धारण करना। अन्तर केवल इतना है कि पुनर्जन्म विधिगत नियमों अर्थात प्रारब्ध और संचित कर्मानुसार प्राकृतिक रूप से होता है। परन्तु परकाया प्रवेश स्वेच्छा से धारण किया जा सकता है और यह सरल नहीं है। कोई बिरला योगी, संत महात्मा तथा सिद्ध पुरूष आदि ही अपनी प्रबल इच्छा शक्ति अथवा योगक्रियाओं के द्वारा परकाया प्रवेश कर सकता है। भौतिक वाद से दूर सत्कमरें और पूर्णतयः अध्यात्म से जुड़ा कोई साधारण सा साधक भी अपनी स्वेच्छा से किसी दूसरे भौतिक शरीर में प्रवेश कर सकता है।
प्राणायाम और योग साधना के पारगंत रेचक प्राणायाम पर पूर्ण नियत्रंण के बाद कुण्डलनी से सूक्ष्म शरीर अर्थात् आत्मा को बाहर निकालकर वांछित किसी भी अन्य भौतिक शरीर में प्रवेश करवा सकते हैं। शंकराचार्य जी ने ऐसे ही राजा के शरीर में अपने सूक्ष्मतम शरीर का परकाया प्रवेश करवाया था।
रामायण, महाभारत, पुराण आदि मान्य ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य प्रामाणिक ग्रंथों में भी परकाया प्रवेश के अनेकों विवरण मिलते हैं।
- ‘अष्टांग योग’ के अनुसार इन्द्रियों को नियंत्रित करके, निष्काम कर्मानुसार साधक के सूक्ष्म शरीर अर्थात् आत्मा को अन्य किसी जीवित अथवा मृत शरीर में प्रवेश करवाया जा सकता है।
- ‘योग वशिष्ठ’ के अनुसार रेचक प्राणायाम के सतत् अभ्यास के बाद अन्य शरीर में आत्मा का प्रवेश किया जा सकता है।
- ‘भगवान् शंकराचार्या घ्’ के अनुसार यदि सौन्दर्य लहरी के 87वें क्रमांक का श्लोक नित्य एक सहस्त्र बार जप कर लिया जाए तो परकाया प्रवेश की सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
- ‘तंत्र सार’, ‘मंत्र महार्णव’, ‘मंत्र महोदधि’ आदि तंत्र सम्बधी प्रामाणिक ग्रंथों के अनुसार आकाश तत्त्व की सिद्धि के बाद परकाया प्रवेश सम्भव होने लगता है। खेचरी मुद्रा का सतत् अभ्यास और इसमें पारंगत होना परकाया सिद्धि प्रक्रिया में अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होता है।
- ‘व्यास भाष्य’ के अनुसार अष्टांग योग अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के अभ्यास और निष्काम भाव से भौतिक संसाधनों का त्याग और नाड़ियों में संयम स्थापित करके चित्त के उनमें आवागमन के मार्ग का आभास किया जाता है। चित्त के परिभ्र्रमण मार्ग का पूर्ण ज्ञान हो जाने के बाद साधक, योगी, तपस्वी अथवा संत पुरूष अपनी समस्त इन्द्रियों सहित चित्त को निकालकर परकाया प्रवेश कर जाते हैं।
- ‘भोजवृत्ति’ के अनुसार भौतिक बन्धनों के कारणों को समाधि द्वारा शिथिल किया जाता है। नाड़ियों में इन बन्धनों के कारण ही चित्त अस्थिर रहता है। नाड़ियों की शिथिलता से चित्त को अपने लक्ष्य का ज्ञान प्राप्त होने लगता है। इस अवस्था में पहुँचने के बाद योगी, साधक अथवा अन्य अपने चित्त को इन्द्रियों सहित दूसरे अन्य किसी शरीर में प्रविष्ट करवा सकता है।
- यूनानी पद्धति के अनुसार परकाया प्रवेश को छाया पुरूष से जोड़ा गया है। परकाया सिद्धि के लिए विभिन्न त्राटक क्रियाओं द्वारा इसको सिद्ध किया जा सकता है। हठ योगी परकाया प्रवेश सिद्धि में त्राटक क्रियाओं द्वारा मन की गति को स्थिर और नियंत्रित करने के बाद परकाया प्रवेश में सिद्ध होते हैं।
परकाया प्रवेश ध्यान योग, ज्ञान योग और योग निंद्रा द्वारा सम्भव हो सकता है। सांसारिक बंधनों से मुक्ति के मार्ग तलाशना और उनसे धीरे-धीरे विरक्त होते जाना तथा मौन, अल्पाहार और आत्मकेन्द्रित मनः स्थिति द्वारा ध्यान योग में सिद्धहस्त होकर परकाया प्रवेश सिद्धि का एक अच्छा उपक्रम है।
कुल सार-सत यह है कि आत्मा के तीन स्वरूप है-जीवात्मा जो भौतिक शरीर में वास करता है। जीवात्मा जब वासनामय शरीर में निवास करता है तो वह प्रेतात्मा स्वरूप कहलाता है। इन दोनों से अलग आत्मा का तीसरा स्वरूप है सूक्ष्म आत्मा। ज्ञान योग के द्वारा चित्त की वृत्तियों और संचित कर्मों का शमन करके आत्मज्ञान अर्थात् स्वयं के शरीर को एक देह न मानकर आत्मा मानना। जब यह भावना बलवती हो जाती है तब ही ध्यान भी लगता है और धीरे-धीरे यह अभ्यास चित्त को ध्यान की एक चरम अवस्था में ले जाता है। ऐसे में भौतिक शरीर का आभास तो स्वतः ही पूर्णतया समाप्त हो जाता है और तब सूक्ष्म शरीर का आभास होने लगता है। यहाँ से भी अनेक अवस्थाएं सामने आती हैं। साधक या तो चिर निद्रा में चला जाता है अथवा अर्धचेतन अवस्था में समाधिस्थ हो जाता है। यही कहीं एक ऐसी अवस्था भी आती है जो सूक्ष्म आत्मा को वायव्य गुणों से पूर्ण कर देती है और तब इच्छानुसार उसको किसी अन्य शरीर में प्रवेश करवाया जा सकता है।
राजगुरु जी
महाविद्या आश्रम
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