Saturday, August 10, 2019

इस मंदिर में मूर्ति की जगह पूजी जाती है देवी की योनि






इस मंदिर में मूर्ति की जगह पूजी जाती है देवी की योनि


असम के गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर, नीलांचल पर्वत के बीच स्थित कामाख्या मंदिर किसी आश्चर्य से कम नहीं है। ये मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां पर माता सती की योनि गिरी थी जिस कारण इसे कामाख्या नाम दिया गया।

 यहां देवी को महावारी यानि कि पीरियड्स आते हैं। इस दौरान मां के रजस्‍वला होने का पर्व मनाया जाता है। सिर्फ यही नहीं उन तीन दिनों के लिए ब्रह्मपुत्र नदी के पानी में भी लाली आ जाती है। 

जितनी अनोखी इस मंदिर की कहानी है उतनी ही अनोखी यहां की महिमा है। इस मंदिर में देवी की मूर्ति की जगह केवल उनकी योनि के भाग की ही पूजा की जाती है। जो भी भक्त पूरी श्रद्धा के साथ यहां आता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती है।

यहां हर साल देवी को होती है माहवारी

इस मंदिर की सबसे रोचक बात ये है कि यहां देवी हर साल तीन दिनों के लिए रजस्वला (माहवारी) होती हैं। इस दौरान मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं। तीन दिनों के बाद भक्त पूरे उत्साह के साथ दरवाजा खोलते हैं। 

इस दौरान भक्तों को प्रसाद के रूप में अम्बुवाची वस्त्र का टुकड़ा दिया जाता है। बताते हैं कि देवी के माहवारी होने के दौरान प्रतिमा के आस-पास सफेद कपड़ा बिछा दिया जाता है और जब तीन दिन बाद मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं,

 तब वह वस्त्र माता के रक्त से लाल रंग से भीगा होता है और यही प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है। नवरात्रि के दिनों में यहां भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है।

ऐसे हुआ था इस मंदिर का निर्माण

यहां के पुजारियों की मानें तो यह मंदिर 16 वीं शताब्दी से आस्तित्व में आया। तब कामरूप प्रदेश के राज्यों में युद्ध होने लगे, जिसमें कूचविहार रियासत के राजा विश्वसिंह जीत गए।

 युद्ध में विश्व सिंह के भाई खो गए थे और अपने भाई को ढूंढने के लिए वे घूमत-घूमते नीलांचल पर्वत पर पहुंच गए। वहां उन्हें एक बूढ़ी औरत दिखाई दी। 

उसने राजा को कामाख्या पीठ के चमत्कारों के बारे में बताया। यह बात जानकर राजा ने इस जगह की खुदाई शुरु करवाई, जिसमें कामदेव द्वारा बनवाए हुए मूल मंदिर का निचला हिस्सा बाहर निकला। राजा ने उसी मंदिर के ऊपर नया मंदिर बनवाया।

जानिए किसे कहते हैं शक्तिपीठ

धर्म पुराणों के अनुसार देवी सती ने अपने पिता के खिलाफ जाकर भगवान शिव से शादी की थी, जिस वजह से सती के पिता दक्ष उनसे नाराज थे। एक बार राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन करवाया लेकिन अपनी बेटी और दामाद को निमत्रंण नहीं भेजा।

 सती इस बात से नाराज तो हुईं, लेकिन फ़िर भी वह बिना बुलाए अपने पिता के घर जा पहुंची, जहां उनके पिता ने उनका और उनके पति का अपमान किया। इस बात से नाराज़ हो कर वो हवन कुंड में कूद गईं और आत्महत्या कर ली। 

जब इस बात का पता भगवान शिव को चला तो वो सती के जले शरीर को अपने हाथों में लेकर तांडव करने लगे, जिससे इस ब्रह्मांड का विनाश होना तय हो गया लेकिन विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र से सती के जले शरीर को काट कर शिव से अलग कर दिया। कटे शरीर के हिस्से जहां-जहां गिरे वो आज शक्ति पीठ के रूप में जाने जाते हैं।

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