भैरवी साधना के लिए उपयुक्त आयु वर्ग
तंत्र साधना सामान्य वैदिक साधना अथवा दक्षिणमार्गी साधना अथवा योग साधना से भिन्न मार्ग पर चलती है और यह शरीर को अस्त्र बनाकर शक्तियां नियंत्रित और उपयोग करती है |tantra के वाम मार्ग में कुंडलिनी साधना में भैरवी विद्या या भैरवी tantra का प्रमुख स्थान है ,यद्यपि यह सर्वाधिक विवादास्पद मार्ग भी कहा जाता है ,परन्तु इसके सूत्र और सफलता कुछ और कहानी कहते हैं |इसका सही गुरु के निर्देशन में उपयोग उन सफलताओं को महीनों में दिला देता है जिन्हें पाने में अन्य मार्गों में कई वर्षों लग जाते हैं |सभी मार्गों में काम ऊर्जा का उपयोग शक्ति ,सिद्धि और सफलता पाने में होता है ,किन्तु लोग भ्रम पाले रहते हैं की उन मार्गों में इसका उपयोग नहीं होता |
उदाहरण हर मार्ग में साधना के समय ब्रह्मचारी की अवधारणा है ,क्यों क्योकि यह काम ऊर्जा को टोक कर शक्ति देती है ,और कुंडलिनी जागरण में सहायक होती है |भैरवी मार्ग में भी यह है ,अंतर इतना है की यहाँ काम ऊर्जा को तीब्र और तीब्रतम करके भी रोका और नियंत्रित किया जाता है भैरवी के माध्यम से |वाही प्रक्रिया जो अन्य मार्गों में है यहाँ भी है किन्तु अत्यंत प्रभावी तरीके से |इसीलिए यहाँ सफलता भी अधिक है |सबके बस में नहीं यह कर पाना |अच्छे से अच्छे योगी और साधक इसे नहीं कर सकते |सबसे अधिक खतरे भी हैं पतन के और शक्ति नष्ट होने के ,किन्तु नियंत्रण हो तो वह सब कुछ समय में मिलता है जो दसकों तक अन्य मार्गों में लोग तरसते रहते हैं |
चूंकि भैरवी मार्ग में शरीर और सृष्टि अर्थात काम ऊर्जा का उपयोग होता है अतः भैरवी साधना में शरीर और शारीरिक स्थिति का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है।यह साधना शारीरिक ऊर्जा से सृष्टि करता ऊर्जा की प्राप्ति का मार्ग है।इस मार्ग में शारीरिक ऊर्जा से कुण्डलिनी और चक्रों का जागरण किया जाता है।मन्त्र।पूजा।ध्यान।सहायक तत्व होते हैं।अतः शारीरिक ऊर्जा जिस आयु में सर्वाधिक होती है
वह आयु वर्ग सबसे उपयुक्त होता है।भैरवी साधना के लिए पुरुष की आयु 18 से 45 वर्ष के बीच और स्त्री की आयु 16 से 32 वर्ष के बीच सर्वाधिक उपयुक्त होती है।बेहतर शारीरिक स्वास्थ्य और काम ऊर्जा होने पर कुछ वर्ष बढ़ाये जा सकते है अधिकतम आयु में किन्तु साधना शुरू करने की आयु 16 और 18 से कम नहीं होती।साधना शुरू हो जाने पर यह सफलता और शारीरिक स्थिति पर निर्भर करता है की साधक इसे कब तक जारी रखता है यद्यपि एक स्थिति के बाद शारीरिक साधना महत्वहीन हो जाती है और सब मानसिक स्तर पर चलने लगता है।शारीरिक ऊर्जा और क्षमता का महत्त्व सर्वाधिक मूलाधार पर होता है उसके बाद के अन्य चक्रों पर क्रमशः महत्त्व कम होता जाता है और अनाहत तक यह महत्वहीन होने लगता है | विशुद्ध तक आते आते भाव ही मुख्या रह जाता है शरीर नहीं |...
राजगुरु जी
महाविद्या आश्रम
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