चौसठ योगिनी :मेरे जीवन का स्वर्णिम पन्ना
अर्ध रात्रि का समय था और आकाश में चतुर्दशी का चंद्रमा अपनी चांदनी को बिखेर रहाथा,सामने नर्मदा का जल कल-कल की ध्वनि के साथ बह रहा था,और ठंडी हवा बहतेपानी को छू कर शीतलता का अनुभव दे रहा था,हम भेडाघाट के तट पर बैठकर आपस मेंवार्ता कर रहे थे.कई दिन हो गए थे मुझे यहाँ आये हुए.नित्य तंत्र के नवीन रहस्यों काउद्घाटन होना आम बात थी. नित्य रात्रि को हम भिन्न भिन्न घाटो पर बैठकर तंत्र कीचर्चा करते और मध्य रात्रि और ब्रम्ह मुहूर्त में साधना का अभ्यास करता.मेरे मन कीविविध उलझनों को सुलझाने का दायित्व उन्ही दोनों अग्रजों ने जो ले रखा था.पारितोषभाई और अवधूती माँ का साहचर्य जो मुझे प्राप्त था.
भाई, ये चौसठ योगिनी मंदिर का क्या रहस्य है ?
अरे भाई, जब माँ यहाँ पर उपस्थित है तो भला मैं कैसे कुछ कह सकता हूँ.आप माँ से हीइस विषय की जानकारी लीजिए ,उन्होंने यहाँ के कई गुप्तरहस्यों को आत्मसात किया है.
हाँ हाँ क्यूँ नहीं,निश्चय ही इस रहस्य को तो प्रत्येक साधक को समझना हीचाहिए,साधना की पूर्णता योगिनियों की कृपा के बगैर.अगम तंत्र ६४ भागो में विभाजितहै अर्थात ६४ तंत्रों की प्रधानता हैं और माँ आदिशक्ति की सहचरी उनके ये ६४ शक्तियांही उन तंत्रों को की स्वामिनी होती है.ये योगिनी ही उन तंत्रों की मूल शक्ति होती है औरजब साधक अपने साधना बल से इनका साहचर्य प्राप्त कर लेता है तो उसे वो तंत्र औरउसकी शक्ति भी प्राप्त हो जाती तब साधक इनके सहयोग जगत से वैश्वानर औरअगोचर सत्ता के ऐसी ऐसे रहस्यों को ज्ञात कर लेता है,जिसकी कल्पना भी नहीं की जासकती.
माँ क्या ये साधना सहज रूप से की जा सकती है? मैंने पूछा.
नहीं मेरे बच्चे इन साधनों को कभी भी हलके में नहीं लिया जा सकता,जिनमे प्राणशक्तिकी कमी हो वो तो इस साधना की शुरुआत भी नहीं कर पाते हैं ,जैसे ही साधक इन्हेंआवाहन का मानस बनाता है वैसे ही,इनकी सहचरी उपशक्तियां व्यवधान उत्पन्न करनेलगती है.घृणा और जुगुप्सा के भाव को ये अति संवेदनशील बनाकर तीव्र कर देते हैं औरअंतर्मन में दबा हुआ भय तीव्र होकर बाह्यजगत में दृष्टिगोचर होने लगता है.औरसाधक का शरीर इस तीव्रता को बर्दाश्त नहीं कर पाता है फलस्वरूप साधक का शरीर फटही जाता है.इसलिए बिना गुरु के उचित निर्देशन के ऐसी साधनाओं में हाथ नहीं डालनाचाहिए.
प्राणशक्ति की तीव्रता के कारण इनके मानसिक शक्ति के विद्युतीय परिपथ के संपर्कमें आने वाला साधक मानसिक विक्षिप्तता को ही पाता है,सफलता के लिए तो अद्भुतप्राणबल होना पहली और अनिवार्य शर्त है.और ये भी तय है की इनकी सहायता जिसेप्राप्त हो जाती है परा और अपरा जगत के विविध रहस्यों की परते उसके लिए उघड़नेलगती हैं.
क्या इस स्थान से ,इस योगिनी मंदिर से इनका कोई लेना देना भी होता है ?
हाँ बिलकुल होता है,वास्तव में जहाँ जहाँ इस प्रकार के या नाथ पीठ होते हैं (अर्थात जहाँउन्होंने साधना की हो) वहां आकाश में निर्गत द्वार होगा ही.लोकिक रूप से तो ये तारोंका घना झुण्ड होता है परन्तु वो उनके लोक विशेष में जाने का और उस तंत्र के उद्गमस्थल तक पहुचने का मार्ग होता है.जिसके द्वारा ये साधक उस लोक तक की यात्रा उनशक्तियों के सहयोग से आसानी से कर लेते हैं जो की उन्हें उन योगिनियों से प्राप्त होतीहै.उस शक्ति के कारण उनका सूक्ष्म शरीर सहजता से वासना शरीर या कारण शरीर सेशिथिल होकर सरलता से विभक्त हो जाता है तब,काल,स्थान और दूरी का कोई महत्त्वनहीं रह जाता है. पंचतत्वों की सघनता भी इन क्षेत्रों में होती है.
इनका स्थापन यहाँ कैसे किया गया होगा और उसका उद्देश्य क्या था ?
देखो इस मंदिर की स्थापना कलचुरी नरेश के शासन काल में हुयी है. अक्सर अघोर पंथ,शाक्त या पाशुपत संप्रदाय के असीम शक्ति संपन्न साधक ही इनका पूर्ण रूप सेआवाहन कर इनकी स्थापना कर सकते हैं.पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक नकुलीश केसमय अघोर साधनाओं का प्रभुत्व चल रहा था और कलचुरी नरेश कृष्णराव,शंकरगणऔर बुद्धराज,ये तीनों अघोर पद्धति से भगवान अघोरेश्वर महाकाल की उपासना करते थे.अपने सम्प्रदाय को आगे विस्तार देने के लिए ही ये सभी आदि शक्ति और शिवलिंगतथा शिव प्रतिमा को अलग अलग जगह फैलाते थे.ये सभी योगिनी मंदिर जो मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ तथा अन्य प्रान्तों में स्थापित होते न सिर्फ वास्तु कला की दृष्टि सेबल्कि भयंकर साधना की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहे हैं.इन मंदिरों में जिन योगिनियों कास्थापन किया जाता है वो पूर्ण तामसिक भाव से की जाती है तथा बलि आदि कृत्य भीसंपन्न किये जाते हैं ,उसके फलस्वरूप उस अगोचर तामसिक लोक की प्रधान शक्ति कासीधा संपर्क यहाँ से स्थापित हो जाता है.उसी के प्रभाव से ये समय समय पर किन्हीखास क्षणों में ये प्रतिमाये जीवंत हो जाती है और जब मन्त्र बल से इन्हें कोई साधकजीवंत कर दे तो ये सामूहिक रूप से अपनी उस प्रधान शक्ति को भी आवाहित करसाधक को प्रचंड शक्तियों का स्वामी बना देती हैं. और ऐसा जब भी होता है प्रकृति मेंकोई न कोई विकृति आ ही जाती है.
तो क्या इन्हें सामान्य रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता है ?
किया जा सकता है ,परन्तु सिर्फ सद्गुरु ही इनके आवाहन मन्त्रों की भयंकरता कोसौम्यता में परिवर्तित कर सकते हैं, और उनके द्वारा प्रदत्त ध्यान तामसिक न होकरराजसिक और ज्यादातर सात्विक भाव युक्त ही होते हैं.और सद्गुरु अपने तपबल सेइनकी ज्यामितीय आकृति को उकेर कर यन्त्र का रूप देकर इन सभी योगिनियों कास्थापन उसमे कर देते हैं.
और एक महत्वपूर्ण तथ्य भी मैं बता देती हूँ की मूल योगिनी पीठ हमेशा इस मंदिर केऊपर या नीचे स्थापित होते हैं ,जहाँ विग्रह की स्थापना न होकर मूल यन्त्र ही वेदिमयहोता है.और यदि साधक इसके द्वार को खोलने का तरीका जान कर सिद्ध कर ले तो वहांपहुचने पर उसने जिस प्रकार का ध्यान किया है तदनुरूप ही उसे वह का वातावरण औरशक्ति का प्रभाव अनुभव होता है.इस द्वार भेदन की क्रिया चतुवष्टि कल्प कहलाती है.
क्या मैं इसमें प्रवेश कर सकता हूँ ?
आज नहीं कल,क्योंकि कल पूर्णिमा है और पूर्णिमा को इनकी तीव्रता उतनी नहीं रहतीहै,इनकी तीव्रता अमावस्या और अँधेरी रातों में भयानक रूप से रहती है ,खास तौर परदीपावली और सूर्य ग्रहण की रात्रि में. अतः नए साधक को इस अदृश्य लोक में प्रवेशप्रारंभ करने का उपक्रम पूर्णिमा से ही प्रारंभ करना चाहिए. उसके कुलदेवी के वर्ग कीयोगिनी साधक का सहयोग कर इसके अन्तः गर्भगृह में जाने का मार्ग प्रशस्त करती है.
उसके बाद दुसरे दिन हम तीनों ही एक विशेष मन्त्र के द्वारा उस अन्तः गर्भगृह मेंप्रविष्ट हुए,लंबा गलियारा पार कर हम गर्भ गृह तक पहुचे, वो एक लंबा चौड़ा कक्षथा,जहा एक अद्भुत ही उर्जा प्रवाहित हो रही थी तथा दीवारों से मंद मंद प्रकाश फूट रहाथा जिससे वह रौशनी बिखरी हुयी थी. कक्ष के मध्य में ही एक काले पत्थर पर उत्कीर्णयन्त्र वेदी पर स्थापित था जो ४ गुना ४ फुट के पत्थर पर अंकित था.वहां माँ और भाई नेविधिवत पूजन किया तथा मैंने भी उनका अनुसरण किया,वे जिन प्रणाम मन्त्रों को बोलरहे थे वे ऊपर स्थापित विग्रहों के नाम से मुझे भिन्न प्रतीत हुए,उस समय तो मैं शांतरहा पर बाद में जब मैंने भाई से उसकी वजह पूछी तो उन्होंने बताया की एक ही देवी केअलग अलग नाम सम्प्रदाय विशेष में होता है ,अतः जैसी परंपरा होगी साधक उन्हीस्वरूपों का ध्यान करता है ,परन्तु इससे कोई अंतर नहीं पड़ता,पानी को जल कह देने सेतत्व तो नहीं बदल जाता. खैर अर्चना के मध्य ही उस यन्त्र के विभिन्न भागों से प्रथकप्रथक धूम्र रुपी किरणे लगी जो अंततः आखिर में रक्त वस्त्रों से सुसज्जित एक २५-२८वर्षीय कन्या में परिवर्तित हो गयी.जो लाल पत्थरों की चूडियाँ और हार पहने हुएथी.जिनसे प्रकाश उत्सर्जित हो रहा था .उनके मुख से आशीष वचन निकल रहे थे,थोड़ेसमय बाद वो पुनः किरणों के रूप में विखंडित होकर यन्त्र में ही विलीन हो गयी.अद्भुतथा वो दृश्य और यदि साधक उस कल्प का प्रयोग सिद्ध कर ले तो बहुतेरे अध्यात्मिकऔर भौतिक लाभ की प्राप्ति उसे होती ही है.परन्तु गुरु आज्ञा के बगैर ऐसा कल्प नहींदिया जा सकता,क्यूंकि उसको सिद्ध करने का विधान जटिल है और उसमे बहुतसावधानी की जरुरत भी है परन्तु यदि साधक उन योगिनियों का प्रतिक चिन्ह चतुवाष्टियन्त्र की प्राप्ति गुरु धाम से करके उस पर रविवार रात्रि से ११ दिन तक नित्य निम्ननाम के आगे ‘ओम’ और पीछे नमः लगाकर , जैसे-ओम काली नित्या सिद्धमाता नमः.लाल कुमकुम से रंगे हुए अखंडित अक्षत अर्पित करे और इसके बाद “ओम चतुवष्टि:योगिनी मम मनोवांछित पूरय पूरय नमः” मंत्र की २१ माला संपन्न करे उसके बाद पुनःनिम्न नामो के साथ अक्षत अर्पित करें. थोड़े ही समय में उसे अद्भुत चमत्कार अपनेनित्य जीवन में दिखाई देने लगेंगे.
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