Monday, May 18, 2015

यह ललकार हैं अब भी नहीं जागोगे तो कब जागोगे








बहुत मुश्किल हैं, अपने आपकी जज्ब करना और बढ़ते हुए पारे को रोक कर नियंत्रित करना, मैं ब्राह्मण पुत्र हूँ और विनम्रतापूर्वक मुझे गर्व हैं, कि मेरी धमनियों में वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद और पुलत्स्य जैसे ऋषि मुदगल का रक्त बह रहा हैं, मंत्रों और तंत्रों के चरणों में मैंने अपनी शानदार जवानी को समर्पित कर दिया हैं. जो उम्र मौज, शौक, आनंद और प्रसन्नता की होती हैं, वह उम्र मैंने हिमालय की कंटकाकीर्ण पगडंडियों पर विचरण करते हुए बितायी हैं, जो उम्र मखमली गद्दों पर सोने की होती हैं, उस उम्र में मैं अपनी पीठ के नीचे उबड़ खाबड़ पहाडों की चट्टानें रख कर सोया हूँ और जो उम्र नवोढ़ा दर्शन में व्यतीत होती हैं, वह उम्र मैंने जर्जर वृद्ध और सूखे हुए सन्यासियों के चरणों में व्यतीत की हैं. पर मुझे इस बात का अफ़सोस नहीं हैं, आज जब इस जीवन यात्रा के पथ पर एक क्षण रूक कर पीछे की और मुड़कर नापे हुए, रस्ते को देखता हूँ तो मुझे अपने आप पर गर्व होता हैं, कि मैंने उस रास्ते पर पैर बढाये हैं, जिस पर कंकर पत्थर कांटे और शूलों के अलावा कुछ भी नहीं हैं. मैं उन हिंसक सामाजिक भेड़ियों के बीच में से बढ़ता हुआ इस जगह तक पहुँचा हूँ जहाँ तक पहुचने के लिए जिंदगी को दांव पर लगाना पड़ता हैं, बिना जिजीविषा के यह रास्ता पार करना सम्भव नहीं. यहाँ पग-पग पर आलोचना, झूठे आक्षेप और प्रताड़ना के अलावा कुछ भी नहीं. ये दिखावटी भेड़िये हैं और इनके दांतों में निंदा रुपी मांस के टुकड़े अटके पड़े हैं, इस मांसों के टुकडों को कुतरने और इन हड्डियों को चबाने में इन्होने अपनी जिंदगी की पूर्णता समझी हैं, जिसका जैसा आत्म होता हैं, वह दूसरों को भी वैसा ही समझता हैं, सैकड़ों वर्षों से इनका प्रयत्न यही रहा हैं कि रास्ते पर बढ़ने वाले पुरूष को खिंच कर अपनी जमात में मिला लिया जाए, उन्हें भी वही सब कुछ करने का ज्ञान दिया जायें, जो वह करते आ रहे हैं. और मैंने जिंदगी के इस पड़ाव पर एक क्षण के लिए ठहर कर चिंतन किया हैं, तो मेरी झोली में उपलब्धियां ही उपलब्धियां हैं. जब समाज मुग़लों और अंग्रेजों की दासता के नीचे छटपटा रहा था, तब मैंने स्वतन्त्रता के दीपक को जितना भी हो सकें जलाये रखने और अंधड़ तूफ़ान से बचाए रखने का प्रयत्न किया हैं, मैंने गुलामी के अन्धकार को अपनी नंगी आंखों से देखा हैं, अपनी जवानी में मैंने भारत-पाकिस्तान के समय मनुष्य की पाशविकता को अनुभव किया हैं, आधी रात को उन धर्मान्धियों के द्वारा मारे गए मनुष्यों की लाशों पर पाँव रखते हुए बाहर आने के लिए प्रयत्न किया हैं, मैंने वह सब अपनी इन आंखों से देखा हैं, उस दर्द को भोगा हैं, मैंने अपने देवता स्वरुप मित्रों को इन हत्यारों के हाथों कुचलते हुए अनुभव किया हैं. मैं इस दर्द का साक्षी हूँ, और मेरे सारे शरीर के दर्द अभी भी कभी-कभी कचोट मार लेता हैं. और मैंने उन भगवे कपड़े पहिने हुए सन्यासियों को देखा हैं, जो धार्मिक स्थानों पर या जंगलों में चमकीले कपड़े पहिने हुए अपने आपको पुजवाते हुए, ख़ुद के ही ललाट पर सिंदूर लगा कर बैठे हुए देखा हैं. मैंने इनके अन्दर झांक कर अनुभव किया हैं कि केवल ढोंग, पाखंड और छल के अलावा इसके पास कोई पूँजी नहीं हैं, भारतीय आप्त वाणी को भुनाते हुए ये गली कुचों में भटकने वाले भिक्षुओं से भी गए गुजरे हैं, और इनके छल, इनके झूठ और इनके पाखंड के दर्द को मैंने जहर की तरह गले के नीचे उतारा हैं, और भोगा हैं. बड़े-बड़े आश्रमों के ठेठ अन्दर अपने आपको छिपा कर कभी-कभी दर्शन देने वाले इन हथकण्डे बाज सन्यासियों को भी देखा हैं, जिनके पास थोथी बाजीगरी और लफ्फाजी का व्यापार हैं, और यह सब देखकर मेरे शरीर का पारा निश्चित रूप से इतना अधिक बढ़ जाता हैं कि कई बार मुझे अपने आप पर शर्म आने लगती थी कि मैं इन लोगों जैसे ही कपडे पहने हुए हूँ. पर इस अन्धकार में भी मुझे पच्चीस हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए, मुदगल ऋषि के शब्द कानों में बराबर झंकृत हो रहे थे कि अँधेरा पीने वाला ही प्रकाश दे सकता हैं और जो अपने गले में जहर उतरने की हिम्मत रखता हैं, वही नीलकंठ कहला सकता हैं और मैंने इस जहर को हजार-हजार बार पिया हैं, इस अंधेरे में हज़ार-हज़ार बार ठोकरे खायी हैं, पैर लहुलुहान हुए और मैं उस ऋषि की आप्त वाणी की डोर के सहारे बराबर बढ़ता रहा हूँ, कि यदि सूर्य उगने तक मेरी जिंदगी का यह दीपक जलता रहा, तो मैं अवश्य ही उतनी रौशनी तो करता ही रहूँगा, जितनी कि घटाटोप अन्धकार में भारत वर्ष की आँखों को दिखाई दे सकने वाली सामर्थ्य दी जा सकें. और इस अंधकार का पार करते-करते मेरे जिंदगी के सुनहरे दिन समाप्त हो गए, यौवन का आनद पत्थरों से ठोकरे खा खा कर विलुप्त हो गया. आंखों के सुनहरे स्वप्न जंगलों की झड़बेरियों में उलझ कर रह गए, परिवार छुट गया, घर बार छुट गया, जवानी और मस्ती छुट गई, पर इन सबसे परे मुझे वह सब कुछ प्राप्त हुआ, जो हमारे पूर्वजों की धरोहर हैं, उन पूर्वजों ने उन कणाद, पुलस्त्य, अत्रि और मुदगल ने जो कुछ थाती हमें सौंपी थी, हमारे कायर पूर्वजों ने उस थाती को भोज पत्रों और ताड़ पत्रों में छुपा निश्चिंत हो गए थे कि हमने फ़र्ज़ पूरा कर लिया, पर आने वाली पीढियों ने उन लोगों को न माफ़ करने वाली चुन-चुन कर ऐसी गालियाँ दी कि वे पीढियां ही काल के गर्भ में समाप्त हो गई, उनके नाम का भी अस्तित्व नहीं रहा, निश्चय ही शंकराचार्य और गोरखनाथ ने उस दीपक में अपने शरीर को तेल की तरह बना कर डाला और उस दीपक को बचाए रखा, उन्होंने अपनी जिंदगी और जवानी को दांव पर लगाकर उस बुझते हुए दीपक को संरक्षण देने का कार्य किया, और फ़िर कुछ उजाला फैला, कुछ समय के लिए फ़िर कुछ रोशनी हुयी, कुछ क्षणों के लिए ही सही, पर फ़िर कुछ साफ-साफ़ दिखाई देने लगा. पर बाद में एक ही झपट्टे में वह रौशनी मद्धिम पड़ गई. फ़िर हमारी पीढ़ियाँ शेर और शायरी में खो गई फ़िर हमारी जवानी घुन्घुरुओं की रुनझुन में सार्थकता अनुभव करने लगी और फ़िर उस दीपक पर अन्धकार के इतने मोटे-मोटे परदे टांग दिए गए कि दीपक का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. हमारी पीढी को तो यह एहसास ही नहीं रहा कि हमारे पूर्वजों में वशिष्ठ और विश्वामित्र थे. उन्हें गौत्र शब्द का उच्चारण ही याद नहीं रहा, केवल विवाह के समय ब्राह्मण उनके गौत्र का उच्चारण कर भूले भटके उन ऋषियों में से एक का नाम उच्चारण कर लेता, और हम अजनबियों की तरह चौक उठते कि ग़ालिब, मीर, मिल्टन, और शैक्सपियर जैसे परिचित नामों में इस ब्राह्मण ने यह किस नाम का उच्चारण कर दिया, और फिर अपने आपको समझाकर गौरवान्वित हो जाते हैं कि यह एक जल्दी कराने वाले ब्राह्मण के मंत्रों का ही कोई एक भाग होगा. और पूरे पच्चीस हज़ार वर्षों में अंग्रेजो ने पहली बार हमारे खून को टेक्नोलॉजी के नाम पर ठंडा कर दिया, पश्चिम के ज्ञान ने हम को अपने ही देश में अजनबी बना दिया. हमें जेम्स, स्टुअर्ट, विक्टोरिया जैसे नाम ज्यादा परिचित अनुभव लगे, इंग्लैंड का इतिहास हमारी जिंदगी के ज्यादा निकट रहा और हमारे पाँव राजमार्ग से परे हट कर जिस अस्पष्ट पगडण्डी पर चढ़ रहे थे, वह पगडण्डी भी पैरों से छीन गई, और हम उस उजाड़ जंगल में आगे बढ़ने में ही गौरवशाली अनुभव करने लगे, जिसका कोई अंत नहीं था. और यह सब कुछ हमारे रक्त में मिल गया, हमारे चेहरे बदल गए, हमारी आंखों में अंग्रेजियत झलकने लगी, सिर पर हैट और गले में टाई बाँध कर शीशे में अपने आपको देखने का अभ्यास करने लगे और जब आँखें दीवारों पर टंगे माँ बाप या पूर्वजों के चित्रों पर अटकती तो विश्वास ना होता था, कि हम इनकी संतान हैं, मन के किसी कोने में आवाज़ उठती थी कि इस ड्राइंग रूम में इन फूहड़ और असभ्य लोगों के चित्र टांगना उचित नहीं और वे चित्र उठाकर फेंक देने में मन के किसी कोने में संतोष उभरता, कि हम बहुत कुछ हैं. और इसी खून ने हमें कुछ महाज्ञान भी दिया और यह महाज्ञान था, पूजा पाठ क्या होता हैं, देवताओं के दर्शन करना दकियानूसी हैं, मंत्र तंत्र ढोंग और पाखण्ड हैं, जब इनके कथाकथित माँ बाप अंग्रेज चर्च में घुटने टेक कर ईसा को स्मरण कर रहे होते तब हम घर में पड़ी हुयी देवताओं की मूर्तियों को पिछवाडे घूढ़े के ढेर पर फेंकते होते, जब वे पादरियों के वचनों को घूँट-घूँट पी रहे होते तब हम ब्राहमणों और सन्यासियों का मजाक उड़कर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे होते, जब वे बाईबिल को अपने सिर से लगा रहे होते, तब हम गीता और रामायण को ठोकर मारकर फेंकने में सभ्यता की पूर्णता अनुभव कर रहे होते, यह हमारी पीढ़ी का इतिहास हैं, और हमने यही कुछ प्राप्त किया हैं, इन सबसे मेरे कलेजे पर हजारों फफोले पड़े हैं, मेरी मृत्यु के बाद चिता पर आकर कोई भी मेरे नंगे सीने को उधेड़ कर देख सकता हैं, कि उस पर इतने अधिक जख्म लगे हैं, कि अब कोई नया जख्म लगने के लिए जगह बाकी ही नहीं बची हैं. और ऐसे ही कायर और गुलाम माँ बाप की संतानों ने दो चार शब्द रट रखे हैं, कि पत्रिका को साईंटिफीक तरीके से निकलना चाहिए, मंत्रों तंत्रों में कुछ नई टेकनिक लेनी चाहिए, योग और मंत्रों का साईंटिफीक बेस प्रस्तुत करना चाहिए, मैं तो कह रहा हूँ कि मंत्रों तंत्रों को ही नहीं अपने माँ बाप के पुराने दकियानूसी नामों को भी बदल देना चाहिए, अपनी वृद्धा माँ को भी साईंटिफीक रूप सिखाना चाहिए, अपने वयोवृद्ध पिता को भी नई टेक्निक देनी चाहिए, क्योंकि बिना साईंटिफीक बेस के उनका आधार ही क्या हैं? और जब इनके ये शब्द सुनता हु तो मुझे दो हज़ार वर्ष पूर्व पैदा हुए ईसा को सूली पर चढ़ाते समय उनके कहे वाक्य याद आ जाते हैं, कि :- “हे भगवान्! इन्हें माफ़ करना, क्योंकि ये जानते नहीं कि ये क्या कह रहे हैं.” सुश्रुत ने एक बार कहा था, कि सूखा और टूटा हुआ पत्ता हलकी हवा में उसी तरफ़ उड़ने लगता हैं, जिधर हवा बहती हैं, लेकिन गहरी जड़ों वाला वटवृक्ष तेज अंधड़ में भी एक से दूसरी तरफ़ झुकता हुआ भी उखाड़ता नहीं, जिनके पास अपने जड़े नहीं होती, वे केवल ओपन माइंडेड ही हो सकते हैं, इसके अलावा होंगे भी क्या? आप पश्चिम के किसी भी विद्वान् से पूछ लीजिये तो वह भी बता देगा कि हमारी विद्यायें और हमारी तकनीक हमारी स्वयं की जीवन पद्धति से निकली हैं, और उनके द्वारा ही हम अपनी और समाज की समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं, अब कोई लल्लू भी आपको यह बता देगा कि भारतीय जीवन पद्धति अमेरिका या यूरोप की जीवन पद्धति से अलग हैं, यूरोपीय विद्याओं और तकनीक में ऐसा सर्वकालिक कुछ भी नहीं हैं, जो किसी भी परिस्थिति में सच हो, जबकि भारतीय चिंतन और दर्शन बीस हज़ार वर्ष पहले भी उतना ही सच था, जितना आज हैं, यहाँ पर मुझे पश्चिम के वैज्ञानिक सुमाकर की उक्ति याद आती हैं, जो उसने किसी भारतीय को कही थी :- “हे वत्स! पश्चिम के मोडल और टेक्नोलॉजी के पीछे पड़े हुए तुम लोगों पर इसीलिए तरस आता हैं, कि तुम अपनी प्रतिभा, शक्ति, समय और पैसा उन समस्याओं के समाधान में बरबाद कर रहे हो जो तुम्हारे समाज की नहीं, मेरे समाज की हैं.” जब आप अपनी चाबी किसी अनजान ताले में लगा कर उसे खोलने की कोशिश करेंगे तो आप ताला तो बिगडेगा ही, उसके साथ ही साथ कुंजी भी, हमने अभी तक यही किया हैं, हमने अपने जीवन और समाज के बंद पड़े तालों को उन चाबियों से खोलने की कोशिश की हैं, जो उनके लिए बनी ही नहीं हैं और इसीलिए हम पिछले सैकड़ों वर्षों से अपने तालों और चाबियों को ख़राब ही कर रहे हैं. हम हैं, और बहुत कुछ हैं, इसका प्रमाण पत्र लेने के लिए किसी दफ्तर में जाने की जरुरत नहीं, हम मृत्युंजयी संस्कृति के देश के बाशिंदे हैं, हमें बाहर से उच्च तकनीक को गले नहीं लगाना हैं, अपितु अन्दर से अपने सत्य का साक्षात्कार करना हैं, और यह हम स्वयं होकर ही कर सकते हैं, अपने मंत्रों के मध्यम से ही अपने योग और दर्शन के द्वारा ही अपनी जिंदगी को पूर्णता दे सकते हैं, हम विविध साधनाओं के द्वारा ही शरीर की धमनियों में बहते हुए, अशुद्ध रक्त को शुद्ध कर सकते हैं, और यह शुद्ध रक्त ही हमारे चेहरे पर पुनः भारतीयता दे सकेगा, हमारी आँखें वापिस अपने आपको पहिचानने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकेगी, और इन विशिष्ट साधनाओं में भाग लेकर ही हम उस आत्म से साक्षात्कार कर सकेंगे जो हमारा स्वयं का आत्म हैं. और जब ऐसा हो सकेगा, तभी हम अपने आपको पहिचान सकेंगे, तभी हम कूड़े के ढेर पर पड़े हुए अपने माँ बाप के चित्रों को पौंछ कर ड्राइंग रूम में लगाने में गौरव अनुभव कर सकेंगे, तभी हम अपने आत्म को जगाकर इष्ट के साक्षात् जाज्वल्यमान दर्शन कर सकेंगे, जो कि हमारे जीवन की पूर्णता हैं, और तभी मैं एहसास कर सकूँगा कि मेरे पांवों में गडे हुए लांखों कांटे और सीने में उठे हुए फफौले राहत दे रहे हैं, कि मुझे विश्वास हैं ऐसा होगा ही, और इसी सत्य को प्रदान करने की कामना लिए हुए, मैं अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हूँ, और बराबर जीवन की अन्तिम साँस तक अग्रसर बना रहूँगा.


राजगुरु जी

महाविद्या आश्रम


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