भैरवी
तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है। यह तंत्र एक निश्चित मर्यादा है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो, अथवा वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी 'शक्ति' का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, 'शक्ति' पर आधारित है।
कदाचित इसका रहस्य यही है, कि साधक को इस बात का साक्षात करना होता है, कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते है, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं व् संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारणवश तंत्र के क्षेत्र में तो पग-पग पर गुरु साहचर्य की आवश्यकता पड़ती है, अन्य मार्गों की अपेक्षा कहीं अधिक।
किन्तु यह भी सत्य है, कि समाज जब तक भैरवी साधना या श्यामा साधना जैसी उच्चतम साधनाओं की वास्तविकता नहीं समझेगा, तब तक वह तंत्र को भी नहीं समझ सकेगा, तथा, केवल कुछ धर्मग्रंथों पर प्रवचन सुनकर अपने आपको बहलाता ही रहेगा।
पूज्यपाद गुरुदेव की आज्ञा को ध्यान में रखकर इसी कारणवश मैं भैरवी साधना की पूर्ण एवं प्रामाणिक साधना विधि प्रस्तुत करने में असमर्थ हूं, किन्तु मेरा विश्वास है, कि कुछ साधक ऐसे होंगे ही, जो साधना के मर्म को समझते होंगे तथा व्यक्तिगत रूप से आगे बढकर उन साधनाओं को सुरक्षीत कर सकेंगे, जो हमारे देश की अनमोल थाती हैं।
साधनाएं केवल साधकों के शरीरों के माध्यम से संरक्षित होती है, उन्हें संजो लेने के लिए किसी भी कैसेट या फ्लापी या डिस्क न तो बन सकी है, न बनेगी। आशा है, गंभीर साधक इस बात को विवेचानापूर्वक आत्मसात करेंगे।
शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस का सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होनें माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा।
आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहें वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रह्म को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वार ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था।
ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके।
कोई माने या न माने लेकिन यदि काम-भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव है।
इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी-साधना या भैरवी-चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचों मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति था।
भैरवी साधना में कई भेद है– जहाँ प्रथम रूप में स्त्री और पुरूष निर्वस्त्र हो कर एक दूसरे से तीन फुट की दूरी पर आमने सामने बैठ कर, एक दूसरे की आँखों में देखते हुऐ शक्ति मंत्रों का जाप करते हैं। लगातार ऐसा करते रहने से साधक के अन्दर का काम-भाव उर्ध्व-मुखी हो कर उर्जा के रूप में सहस्त्र-दल का भेदन करता है।
वहीं अन्तिम चरण में स्त्री और पुरूष सम्भोग करते हुऐ, अपने आपको काबू में रखते हैं। दोनों ही शक्ति मंत्रों का जाप करते है और कोशिश करते है की जितना भी हो सके, उतनी ही देर से स्त्री या पुरूष का स्खलन हो।
इसके साथ ही इस साधना को करवाने वाला योग्य गुरू अपने शिष्यों को यह निर्देश देता हैं, कि जब भी स्खलन हो तो दोनों का एक साथ हो। इससे यह होता है, कि जैसे बिजली के दो तारों को जिसमें एक गर्म(फेस) और दूसरा ठंडा(न्यूट्रल) हो, यदि इन दोनों को आपस में टकरा दिया जाये तो चिंगारी(स्पार्किन्ग) निकलेगी, उसी प्रकार अगर स्त्री और पुरूष दोनों का स्खलन एक साथ होने पर अत्यधिक उर्जा उत्पन्न होगी जिससे की एक ही झटके में सहस्त्र-दल का भेदन हो जायेगा।
सहस्त्र-दल का भेदन करने के लिऐ आज तक जितने भी प्रयोग हुऐ है, उन सभी प्रयोगों में यह प्रयोग सब से अनूठा है। ऐसे साधक को साधना के तुरन्त बाद दिव्य ध्वनियॉ एवं ब्रह्माण्ड में गूंज रहे दिव्य मंत्र सुनाई पड़ते है। साधक को दिव्य प्रकाश दिखाई देता है। साधक के मन में कई महीनों तक दुबारा काम-भाव कि उत्पत्ति नहीं होती।
प्रत्येक साधना में कोई न कोई कठिनाई अवश्य होती है, उसी प्रकार इस साधना में जो सबसे बड़ी कठिनाई है, वह यह है कि अपने आप को काबू में रखना एवं साधक और साधिका का एक साथ स्खलन होना। किन्तु धीरे-धीरे भैरवी-साधना भी मात्र काम-वासना का उपभोग बन कर रह गई। धीरे-धीरे साधक सहस्त्र-दल भेदन को भूल गये और उस परमपिता-परमात्मा को भी जिसने कि यह सम्पूर्ण सृष्टि बनाई है, भुलने लगे।
भैरवी-साधना मात्र व्याभिचार-साधना बन कर रह गई। इसका मूल कारण सही गुरू एवं सही दीक्षा तथा पूर्ण मंत्र का न होना भी है। जब तक साधक के पास सही मंत्र एवं दीक्षा नहीं होगी तब तक साधक चाहे कितना भी अभ्यास करे भैरवी-साधना में सफलता असम्भव है। क्योंकि भैरवी-तंत्र के अनुसार भैरवी ही गुरू है और गुरू ही भैरवी का रूप है।
निश्चय ही अगर साधना पूर्ण मनोभाव और समर्पण के साथ कि जाये तो साधक के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आने लगते है.और जीवन को एक नविन दिशा मिलती ही है.तो अब देर कैसी आज ही संकल्प ले और साधना के लिए आगे बड़े.
चेतावनी -
सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।
बिना गुरू साधना करना अपने विनाश को न्यौता देना है बिना गुरु आज्ञा साधना करने पर साधक पागल हो जाता है या म्रत्यु को प्राप्त करता है इसलिये कोई भी साधना बिना गुरु आज्ञा ना करेँ ।
विशेष -
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महायोगी राजगुरु जी 《 अघोरी रामजी 》
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