मैं हिंदी हूं।
स्तब्ध हूं। इसी देश की हूं। बहुत दुखी हूं। समझ नहीं आ रहा क्या करूं? क्योंकि समय आ चला है रस्मी सरकारी याद करने का वह दिन, एक और हिन्दी दिवस मनाने का सितंबर महीने शुरू होते ही लोग अक्सर यह पूछते मिल जाते है कि हिंदी आगे कैसे बढ़े, और आज ही के दिन हिंदी के नाम पर कई सारे पाखंड होंगे। कई पुरस्कारों का ऐलान भी होंगा। अलग-अलग जगहों पर हिन्दी की दुर्दशा पर विभिन्न प्रकार के सम्मेलन भी किए जाएंगे।
पर समझ नहीं आता कहां से शुरू करू? कैसे शुरू करूं मैं हिंदी हूं जिसकी पहचान इस देश के कण-कण से है। इसकी माटी से है। इसकी सुगंध से है। पर आज अपने ही आंगन में बेज्जत कर दी जाती हूं। मन दुखता है कि मैं इसी देश की हूं। फिर मुझे क्यों ऐसे उखाड़ फेक दिया जा रहा है। मैं अपनों में ही क्यों बेज्जत हो रही हूं। मुझे आज क्यों बताना पड़ रहा है कि मैं भारत के संविधान के अनुच्छेद-343 में लिखित हूं जहां मुझे राजभाषा का दर्जा प्राप्ता है। मैं भारत के 70 फीसदी गांवों के गलियों में महकती हूं। भारतीय सिनेमा से लेकर टीवी सीरियल तक मैं ही तो हूं फिर भी मुझे डर लगता है अपनों से अपने बच्चों से जो मुझे ही भुलने लगे है। मुझे नहीं पता की मैं अपने ही घर में कब से इतना बेज्जत हो रही हूं। लोग मुझे गवार समझनें लगे है।
लोगों को लगता है कि मुझसे दोस्ती गवारों की पहचान है, जो लोग कल तक मुझसे दोस्ती कर के फुले नहीं समाते थे वह लोग आज मुझसे ही कन्नी काट रहे है। उन्हें लगता है कि मुझसे बात करने पर उनका समाज में रूतबे में कमी आ जीती है। आज मैं अपनों की बेवाफाई से ही तरस्त हूं। दम घुटने लगा है मेरा अपने ही देश में, कल तक जो मुझे गवार समझते थे। वह मुझे अब अपना रहें हैं। उन्हें अब मुझ में बहुत खुबियां नजर आती है। कल तक वो अपने चौखट पर आने नहीं देते थे, आज वह मुझे सीने से लगा रहे है, और अपने ही बच्चे मुझे घर से निकाल रहे है। विश्वास करो मेरा कि मैं दिखावे की भाषा नहीं हूं, मैं झगड़ों की भाषा भी नहीं हूं। मैंने अपने अस्तित्व से लेकर आज तक कितनी ही सखी भाषाओं को अपने आंचल से बांध कर हर दिन एक नया रूप धारण किया है।
फिर भी क्यों तुम लोग मुझे उखाड़ फेकने पर तुले हो, यकीन मानो मेरे साथ तुम लोग महफूज हो मैं किसी को छती नहीं पहुंचाती मूझे भी जीनों दो क्यों मुझे उजाड़ने पर तुले हो। हमारे संविधान के अनुच्छेद-351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वह मुझे बढ़ाएं, लेकिन यह कैसी विडंबना है कि मेरे ही देश के बडे-बडे विश्वविद्यालय में मुझे नहीं पढ़ाया जाता है मैं अपने ही देश के विश्वविद्यालयों में मैं नोकरानी बन गई हूं और वह पटरानी यह सिलसिला पिछले सात दशकों से लगातार जारी है और न जाने कब तक जारी रहे। मेरा मन मथने लगा है अब एक तरफ जहां मैं दुनिया में सबसे ज्यादा चाहने वालों में दूसरे नंबर पर हूं, लेकिन अपने ही घर में बेगानों की तरह बर्ताव किया जा रहा है। आज लोग अपने बच्चों को मेरे पास भटकने भी नहीं देते है। मुझे कितना दुख होता है मैं किसे कहूं कोई मेरा सुनने वाला नहीं है।
अब आलम यह है कि मैं जहां सबसे ज्यादा पसंद की जाती थी वही के लोग मुझे देख मुह मोड़ने लगे है। लोग मुझसे ऐसे दुरी बनाने लगे है जैसे मैं कोई संक्रमक बीमारी हूं। लोग मुझे देख कर भागते है मैं चिखती हूं चिल्लती हूं, लेकिन मेरा यह चीख मेरा यह दर्द किसी के अंदर रहम का चिराग नहीं जलाता। मैं अपने जगह पर रेंगती हूं सिसकते रहती हूं पर कोई मेरा सुद लेने नहीं आता। मेरे अपने ही बच्चे मुझसे नफरत करने लगे है कभी साउथ के तो कभी महराष्ट्र के मुझसे इतना नफरत क्यो? मैं किसी को मारती नहीं, डराती नहीं, मैं किसी पर चिखती नहीं, चिल्लती नहीं फिर मुझे ही उखाडने पर क्यों लगे हो मैनें तो कईयों को अपने अंदर बसाया है चाहे वह फारसी, अरबी, उर्दू से लेकर 'आधुनिक बाला' अंग्रेजी तक को आत्मीयता से अपनाया है। बरसों से तुम लोगों का मनोरंजन कर रही हूं तुम्हें जिला रही हूं यकिन न आए तो फिल्म इंडस्ट्री वालों से पूछ कर देख लो क्या मेरे बिना उसका अस्तित्व रह सकेगा? यकीन मानों मुझे अपने घर में रहने दो मैं तुम लोगों को छती नहीं बल्की सीने से लगाउगी और दुनिया में मैं भी अपना चमक दिखाउंगी।
ये लेखक का नीजि विचार है...
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