Thursday, November 28, 2019

वशीकरण साधना





-------------------------------वशीकरण साधना



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यह साधना बहुत ही उच्च कोटि की साधना हैं वशीकरण की, इसमें कोई दो मत हैं ही नहीं ,जिसके माध्यम से आप किसी को भी अपने नियंत्रण में ला कर अनुकूल बना सकते हैं

इस साधना को किसी भी सोमबार की रात्रि में ११ बजे के बाद प्रारंभ किया जा सकता हैं ,साधना प्रारंभ करने से पूर्व स्नान करके लाल वस्त्र धारण करले .

कोई एक प्लेट ले ,जो लोहे या स्टील की बनी हो .| इसके अंदर पूरी तरह काजल लगा दे, और निम्नाकित मंत्र लिखे (काजल को इस प्रकार से हटा हैं की )

" ॐ अघोरेभ्यों घोरेभ्यों नमः "

उस प्लेट के उपर जिस व्यक्ति का वशीकरण करना हैं उसका एक वस्त्र का टुकड़ा विछा दें | यदि ये किसी भी प्रकार से संभव न हो तो ,तो कोई भी नया कपडे का टुकड़ा उस पूरी प्लेट पर बिछा दें. |उस के ऊपर उस व्यक्ति का नाम लिख दे, जिस पर ये प्रयोग करना हैं ये नाम लेखन की प्रक्रिया ,सिन्दूर से ही की जाना चाहिए |
. अपने सामने भगवान् शिव का कोई भी चित्र जो भी आपके पास हो और उस व्यक्ति का भी (जिस पर ये प्रयोग किया जाना हैं ) रखे.

इसके बाद पूर्ण मनोयोग से उसी रात्रि में , काली हकीक या रुद्राक्ष माला से ५१ माला निम्नाकित मंत्र जप करें.

शिवे वश्ये हुं वश्ये अमुक वश्ये हुं वश्ये शिवे वश्ये वश्य्मे वश्य्मे वश्य्मे फट

इस मंत्र में अमुक की जगह उस व्यक्ति का नाम उच्चारित करें जिसे आपको वश में करना हैं .

जब ये मंत्र जप पूर्ण हो आप ऋषि मुंड केश और भगवान् अघोरेश्वर से इस साधना में सफलता के लिए प्राथना करें.

साधना काल के दौरान आपको कुछ आश्चर्य जनक अनुभव हो सकते हैं, पर इनसे न परेशान या बिचलित न हो , ये तो साधना सफलता के लक्षण हैं .

चेतावनी -

सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।

 बिना गुरू साधना करना अपने विनाश को न्यौता देना है बिना गुरु आज्ञा साधना करने पर साधक पागल हो जाता है या म्रत्यु को प्राप्त करता है इसलिये कोई भी साधना बिना गुरु आज्ञा ना करेँ ।

दक्षिणा शुल्क 1500 रू +डाक व्यय

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सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ । बिना गुरू साधना करना अपने विनाश को न्यौता देना है

विशेष -

किसी विशिष्ट समस्या ,तंत्र -मंत्र -किये -कराये -काले जादू -अभिचार ,नकारात्मक ऊर्जा प्रभाव आदि पर परामर्श /समाधान हेतु संपर्क करें

राजगुरु जी

तंत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष विज्ञान  अनुसंधान संस्थान

महाविद्या आश्रम (राजयोग पीठ )फॉउन्डेशन ट्रस्ट

(रजि.)

.किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए इस नंबर पर फ़ोन करें :

मोबाइल नं. : - 09958417249'

                   

व्हाट्सप्प न०;- 9958417249

Monday, November 25, 2019

पित्र दोष कारन और निवारण :-




पित्र दोष कारन और निवारण :- 


ज्योतिष शास्त्र में अनेक योग ऐसे है कि उनसे पता चलता है कि हमारे जीवन में जन्म से पूर्व या बाद में तथा किस प्रकार कौन सा दोष लगा है जिसके कारन अशांति का अनुभव होता है।

पितृ दोष का सिद्धांत है –

करे कोई, भरे कोई। पिता के पापों का परिणाम पुत्र को भोगना ही पड़ता है,यदि उन्हें मुक्ति नहीं मिलती है तो वे प्रेत योनि में प्रवेश कर अपने ही कुल को कष्ट देना शुरू कर देते हैं। कभी-कभी देखने में आता है कि हमारा कोई भी दोष नहीं होता, हमने कोई पाप कर्म नहीं किया होता, फिर भी हमें कष्ट भोगना पड़ता है। यह पितृदोष के कारण होता है।

ऐसे कुछ कारण निम्न हो सकते हैं- पिता, ताया, चाचा, ससुर, माता, ताई, चाची और सास का अपमान करना, पूर्वजों का शास्त्रानुसार श्राद्ध व तर्पण न करना, पशु पक्षियों की व्यर्थ ही हत्या करना, सर्प वध करना। पितृदोष के निवारण हेतु उपाय विधिपूर्वक उपाय करने से व्यक्ति स्वयं, अपने पितरों व आने वाली पीढ़ी को इस दोष के प्रभावों से बचा सकता है।

ज्योतिष शास्त्र में सूर्य से पिता , चन्द्र से माता , गुरु से पितामह , बुध-मंगल से भाई बहन आदि के बारे में जानकारी मिलती है

जैसे कुंडली में यदि कही चंद्र राहु, चंद्र केतु, चंद्र बुध, चंद्र, शनि आदि का सम्बन्ध बनता है तो मातृ पक्ष से योग बनता है या मातृ दोष कहलाते हैं।

यदि चंद्र-राहु एवं सूर्य-राहु योगों को ग्रहण योग तथा बुध-राहु को जड़त्व योग कहते हैं।

जन्म कुंडली के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम व दशम भावों में से किसी एक भाव पर सूर्य-राहु अथवा सूर्य-शनि का योग हो तो जातक को पितृ दोष होता है। यह योग कुंडली के जिस भाव में होता है उसके ही अशुभ फल घटित होते हैं।

प्रथम भाव में :-

इसे ज्योतिष में लग्न कहते है यह शारीर का प्रतिनिधित्व करता है ,सूर्य-राहु अथवा सूर्य-शनि आदि अशुभ योग हो तो वह व्यक्ति अशांत, गुप्त चिंता, दाम्पत्य एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ होती हैं।

दूसरे भाव:– इस भाव से धन, परिवार आदि के बारे में पता चलता है इस भाव में यह योग बने तो परिवार में वैमनस्य व आर्थिक उलझनें हों,
चतुर्थ भाव :- इस भाव से माता , वाहन , जमीन में पितृ योग के कारण भूमि, मकान, माता-पिता एवं गृह सुख में कमी या कष्ट होते हैं।

पंचम भाव में उच्च विद्या में विघ्न व संतान सुख में कमी होने के संकेत हैं।

सप्तम में यह योग वैवाहिक सुख में कमी करता है

नवम भाव :-

अगर किसी भी तरह से नवां भाव या नवें भाव का मालिक राहु या केतु से ग्रसित है तो यह सौ प्रतिशत पितृदोष के कारणों में आजाता है।

दशम भाव :-

पिता के स्थान-दशम् भाव का स्वामी 6, 8, 12 वें भाव में चला जाए एवं गुरु पापी ग्रह प्रभावित या राशि में हो साथ ही लग्न व पंचम के स्वामी पाप ग्रहों से युति करे तो ऐसी कुंडली पितृशाप दोष युक्त कहलाती है। सर्विस या कार्य व्यवसाय संबंधी परेशानियाँ होती हैं।

किसी कुंडली में लग्नेश ग्रह यदि कोण (6,8 या 12) वें भाव में स्थित हो तथा राहु लग्न भाव में हो तब भी पितृदोष होता है।

पितृयोग कारक ग्रह पर यदि त्रिक (6, 8,12) भावेश एवं भावों के स्वामी की दृष्टि अथवा युति का संबंध भी हो जाए, तो अचानक वाहनादि के कारण दुर्घटना का भय, प्रेत बाधा, ज्वर, नेत्र रोग, तरक्की में रुकावट या बनते कार्यों में विघ्न, अपयश, धन हानि आदि अनिष्ट फल होते हैं।

ऐसी स्थिति में पितरों का तर्पण करने से पितृ आदि दोषों की शांति होती है।
इन योगों के प्रभावस्वरूप भी भावेश की स्थिति अनुसार ही अशुभ फल प्रकट होते हैं।

‘श्रद्धया यत् क्रियते तत् श्राद्धम्’

पितरों को प्रसन्न करने के लिए श्रद्धा द्वारा हविष्ययुक्त (पिंड) प्रदान करना ही श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध करने से पितर संतुष्ट होते हैं और वे अपने वंशजों को दीर्घायु, प्रसिद्धि, बल-तेज एवं निरोगता के साथ-साथ सभी प्रकार के पितृ दोष से मुक्ति प्रदान करने का आशीर्वाद देते हैं।

सरल उपाय :-

(1) पीपल और बरगद के वृ्क्ष की पूजा करने से पितृ दोष की शान्ति होती है . या पीपल का पेड़ किसी नदी के किनारे लगायें और पूजा करें, इसके साथ ही सोमवती अमावस्या को दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से भी इस दोष में कमी होती है . या फिर प्रत्येक अमावस्या को एक ब्राह्मण को भोजन कराने व दक्षिणा वस्त्र भेंट करने से पितृ दोष कम होता है .

(2) अपने माता -पिता , भाई-बहन की हरसंभव सेवा करे।

(3) प्रत्येक अमावस्या को कंडे की धूनी लगाकर उसमें खीर का भोग लगाकर दक्षिण दिशा में पितरों का आव्हान करने व उनसे अपने कर्मों के लिये क्षमायाचना करने से भी लाभ मिलता है.

(4) सूर्योदय के समय किसी आसन पर खड़े होकर सूर्य को निहारने, उससे शक्ति देने की प्रार्थना करने और गायत्री मंत्र का जाप करने से भी सूर्य मजबूत होता है.

(5) सोमवती अमावस्या के दिन पितृ दोष निवारण पूजा करने से भी पितृ दोष में लाभ मिलाता है , सोमवती अमावश्य के दिन या नाग पंचमी पर इसकी शांति करें आप को अवश्य लाभ होगा ,ॐ काल शर्पेभ्यो नमः… इस मंत्र को बोल कर कच्चे दूध को गंगाजल में मिलाकर उसमे काला तिल डाले और बरगद के पेड़ में दूध की धारा बनाकर ११ बार परिक्रमम करें , या शिवलिंग पर ॐ नमः शिवाय बोलकर चढ़ाये तो शार्प दोष से मुक्ति मिलेगी…

(6) ‘ऊँ नवकुल नागाय विद्महे विषदंताय धीमहि तन्नो सर्प प्रचोदयात् –

”की एक रुद्राक्ष माला जप प्रतिदिन करें।

(7))घर एवं कार्यालय, दुकान पर मोर पंख लगावें।

(8) शनि के दिन ताजी मूली का दान करें। कोयले, बहते जल में प्रवाहित करें।

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   महायोगी  राजगुरु जी

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Sunday, November 24, 2019

मांगलिक दोष कारन और निवारण :-






मांगलिक दोष कारन और निवारण :- 


जन्मांग चक्र में मंगल 1,4,7,8 और 12 भाव में है तो मांगलिक योग होता है ।विद्वानों का मत है कि लग्न शरीर का, चंद्र मन का और शुक्र रति सुख का, प्रतिनिधित्व करता है।

 इसीलिए लग्न से, चंद्र लग्न से व शुक्र लग्न से प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम व द्वादश में मंगल स्थित होने से मंगल दोष होता है। लग्नस्थ मंगल दोष लग्नस्थ मंगल व्यक्ति को क्रोधी, हठी बनाता है क्योंकि यह उग्र एवं आक्रामक ग्रह है।

लग्नस्थ मंगल की चतुर्थ दृष्टि सुख स्थान पर हो, तो गृहस्थ सुख को बिगाड़ती है।

सप्तम दृष्टि पति के स्थान पर होने से दाम्पत्य सुख को खत्म करती है।

अष्टम भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि पति-पत्नी दोनों के लिए मारक होती है क्योंकि अष्टम भाव सप्तम से द्वितीय होता है।
चतुर्थ भावस्थ मंगल जातक-जातका के सुख स्थान पर स्थित होता है। इस स्थिति में वह अचल संपत्ति तो देता है किंतु सुख शांति छीन लेता है। मंगल की अशुभ दृष्टि पति के स्थान पर होने से पति से संबंध मधुर नहीं रहता। दोनों के बीच वैचारिक मतभेद बना रहता है। चतुर्थ भावस्थ मंगल जीवन साथी को सुख आनंद देने में असमर्थ करता है। मंगल का दोष, क्षीण मंगल दोष माना गया है।

मंगल की दृष्टि सप्तम, दशम व एकादश भाव पर रहती है। ऐसा मंगल पति-पत्नी को पृथक करता है, किंतु यदि पापाक्रांत न हो तो अपनी मारक दृष्टि का संधान नहीं करता। सप्तम भावस्थ मंगल सप्तम स्थान पति-पत्नी का स्थान माना गया है।

सप्तम स्थान का वैवाहिक दृष्टकोण से अत्यधिक महत्व है। इस भाव से दाम्पत्य सुख, विचारों में सामंजस्य, जीवन साथी की आकृति-प्रकृति, रूप-गुण आदि का विचार किया जाता है।

जिस व्यक्ति के सप्तम भाव में मंगल होता है उसके दाम्पत्य सुख में बाधा आती है, जीवन साथी के स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव व स्वभाव में उग्रता रहती है। सप्तम भावस्थ मंगल लग्न स्थान, धन स्थान व कर्म स्थान पर पूर्ण दृष्टि डालता है, जिससे धन हानि, विकृत संतान, दुर्घटना, चारित्रिक पतन तथा व्यवसाय में अवरोध होता है। मंगल की यह स्थिति दाम्पत्य जीवन में कटुता उत्पन्न कर पति-पत्नी को अलग-अलग रहने को बाध्य करती है।
मेष, सिंह, वृश्चिक का मंगल जातक को दुराग्रही व दंभी बनाता है। शोध से पता चला है कि किसी भी राशि का सप्तम भावस्थ मंगल अपना कुप्रभाव देता ही है। अतः मंगल दोष का परिहार कर लेना चाहिए।

सप्तम भावस्थ मंगल जातक जातका को प्रबल मंगली बनाता है। ऐसे मंगल को कांतघाती नाम भी दिया गया है। ऐसा मंगल मृत्यु तुल्य कष्ट देता है या तलाक की स्थिति उत्पन्न कर पति पत्नी को अलग कर देता है।

अष्टम भावस्थ मंगल मंगलदोष की पराकाष्ठा है। अष्टम भाव से हमें जातक के जीवन के विघ्न, बाधा, अनिष्ट, आयु, विषाद, मृत्यु, मृत्यु का कारण एवं मृत्यु का स्थान ज्ञात होता है। स्त्री की जन्म कुंडली में यह स्थान सौभाग्य सूचक माना जाता है। अष्टम भावस्थ मंगल संपूर्ण वैवाहिक सुख का नाश करता है ।

ऋषि-मुनियों व ज्योर्तिविदों ने एक मत से मंगल की इस स्थिति को अत्यंत अशुभ बताया है। इस स्थिति के फलस्वरूप जातक जातका सदैव रोगग्रस्त रहते हैं। फलतः दाम्पत्य सुख का नाश होता है और वे अल्पायु एवं दरिद्र होते हैं।

शास्त्रकारों का मत है

” शुभास्तस्व किं खेचरा कुर्यन्ये विधाने पिचेदष्टमे भूमिसुनूः “

अर्थात मंगल अष्टम भावस्थ हो, तो जातक की कुंडली में शुभ स्थान में बैठे शुभ ग्रह भी शुभ फल नहीं देते। दाम्पत्य जीवन कष्टमय होता है। ऐसे मंगल दोष का परिहार होना बहुत आवश्यक है।

अष्टम भावस्थ मंगल वृष, कन्या, मकर का हो, तो कुछ शुभ होता है, मकर का मंगल संतानहीन बनाता है।
मंगल यदि कर्क, वृश्चिक, मीन का हो, तो जातक की जल में डूबकर मृत्यु का डर रहता है।
उसे परिवार का तिरस्कार सहना पड़ता है।

मंगल द्वादश भाव से भोग, त्याग, शय्या सुख, निद्रा, यात्रा, व्यय, क्रय शक्ति और मोक्ष का विचार किया जाता है।

मंगल द्वादश भावस्थ हो, तो जातक-जातका मंगल दोष से ग्रस्त होते हैं।

फलतः पति-पत्नी में आपस में सामंजस्य नहीं रहता। जीवन टूट कर बिखर जाता है। जातक क्रोधी, कामुक, और दुष्कर्मी हो जाता है। उसे धन का अभाव हो जाता है, उसकी दुर्घटना होती है, वह रक्त विकृति, गुप्त रोग आदि व्याधियों से पीड़ित होता है। वह पत्नी की हत्या भी कर सकता है।

द्वादश मंगल की पूर्ण दृष्टि तृतीय, षष्ठ व सप्तम स्थान पर हो, तो जातक की बंधुओं से शत्रुता होती है और वह रोग से ग्रस्त होता है।

मंगल दोष परिहार:- सर्वमान्य नियम यह है कि मंगल दोष से ग्रस्त कन्या का विवाह मंगल दोष से ग्रस्त वर से किया जाए, तो मंगल दोष का परिहार हो जाता है। कन्या की कुंडली में मंगल दोष हो और वर की कुंडली में उसी स्थान पर शनि हो, तो मंगल दोष का परिहार स्वयमेव हो जाता है।

यदि जन्मांक में मंगल दोष हो किंतु शनि मंगल पर दृष्टिपात करे, तो मंगल दोष का परिहार होता है।
मकर लग्न में मकर राशि का मंगल व सप्तम स्थान में कर्क राशि का चंद्र हो, तो मंगल दोष नहीं होता।
कुछ ज्योतिर्विद कहते हैं कि मंगल गुरु से युत या दृष्ट हो, तो दोष प्रभावहीन होता है।

 किंतु अध्ययन व शोध के आधार पर ज्ञात हुआ है कि गुरु की राशि में स्थित मंगल अत्यंत कष्टकारक होता है और पापाक्रांत मंगल अपना कुप्रभाव डालता ही है। मंगल दोष से दूषित जातकों का जन्मपत्री मिलान करके व मंगल दोष का यथासंभव परिहार करके विवाह करें, तो दाम्पत्य जीवन सुखद होगा है।

वृश्चिक राशि में न्यून किंतु मेष राशि में मंगल प्रबल घातक होता है।

मंगल दोष परिहार के कुछ अन्य नियम इस प्रकार है।
यदि मंगल चतुर्थ अथवा सप्तम भावस्थ हो किंतु किसी क्रूर ग्रह से युत या दृष्ट न हो और इन भावों में मेष, कर्क, वृश्चिक अथवा मकर राशि हो, तो मंगल दोष का परिहार हो जाता है।

और अधिक जानकारी समाधान उपाय विधि प्रयोग या ओरिजिनल रत्न की जानकारी या रत्न प्राप्ति के लिए या कुंडली विश्लेषण कुंडली बनवाने के लिए संपर्क करें

जन्म  कुंडली  देखने और समाधान बताने  की

दक्षिणा  -  201  मात्र .

Pytam नम्बर -  9958417249

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Thursday, November 21, 2019

षोडशी त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा




षोडशी त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा  


त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा प्राप्त होने से आद्याशक्ति त्रिपुरा शक्ति शरीर की तीन प्रमुख नाडियां इडा, सुषुम्ना और पिंगला जो मन बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती हैं, वह शक्ति जाग्रत होती है।

भू भुवः स्वः यह तीनों इसी महाशक्ति से अद्भुत हुए हैं, इसीसलिए इसे त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है। इस दीक्षा के माध्यम से जीवन में चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही साथ आध्यात्मिक जीवन में भी सम्पूर्णता प्राप्त होती है, कोई भी साधना हो, चाहे अप्सरा साधना हो, देवी साधना हो, शैव साधना हो, वैष्णव साधना हो, यदि उसमें सफलता नहीं मिल रहीं हो, तो उसको पूर्णता के साथ सिद्ध कराने में यह महाविद्या समर्थ है, यदि इस दीक्षा को पहले प्राप्त कर लिया जाए तो साधना में शीघ्र सफलता मिलती है।

 गृहस्थ सुख, अनुकूल विवाह एवं पौरूष प्राप्ति हेतु इस दीक्षा का विशेष महत्त्व है। मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए भी यह दीक्षा उपयुक्त है। इस दीक्षा से साधक को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

प्रत्येक महाविद्या दीक्षा अपने आप में ही अद्वितीय है, साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक दीक्षा के महत्त्व का एक प्रतिशत भी वर्णन स्थानाभाव के कारण यहां नहीं हुआ है, वस्तुतः मात्र एक महाविद्या साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का मार्ग खुल जाता है, और एक-एक करके सभी साधनों में सफल होता हुआ वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है।

यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है, कि दीक्षा कोई जादू नहीं है, कोई मदारी का खेल नहीं है, कि बटन दबाया और उधर कठपुतली का नाच शुरू हो गया।

दीक्षा तो एक संस्कार है, जिसके माध्यम से कुस्नास्कारों का क्षय होता है, अज्ञान, पाप और दारिद्र्य का नाश होता है, ज्ञान शक्ति व् सिद्धि प्राप्त होती है और मन में उमंग व् प्रसन्नता आ पाती है। दीक्षा के द्वारा साधक की पशुवृत्तियों का शमन होता है ... और जब उसके चित्त में शुद्धता आ जाती है, उसके बाद ही इन दीक्षाओं के गुण प्रकट होने लगते हैं और साधक अपने अन्दर सिद्धियों का दर्शन कर आश्चर्य चकित रह जाता है।

जब कोई श्रद्धा भाव से दीक्षा प्राप्त करता है, तो गुरु को भी प्रसनता होती है, कि मैंने बीज को उपजाऊ भूमि में ही रोपा है। वास्तव में ही वे सौभाग्यशाली कहे जाते है, जिन्हें जीवन में योग्य गुरु द्वारा ऐसी दुर्लभ महाविद्या दीक्षाएं प्राप्त होती हैं, ऐसे साधकों से तो देवता भी इर्ष्या करते हैं।

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Sunday, November 17, 2019

अघोर भैरवी साधना






अघोर भैरवी साधना


अगर दुर्भाग्य साथ न छोडे और हर कदम पर बाधा बनकर उपस्थित हो,हर तरफ से जिवन मे खूशीया कौन नहि चाहते है परंतु पूर्वजन्म के येसे भि दोष है हमारे ज्यो हमे रुलाते है,ज्यो हमे शिष्य नहि बल्कि अनुयायि बनाते है.

अब तो इन सारि दोषो से लढना है,नहि तो ये दोष हमे ज्योतीष्यीयो के गुलाम बना देगे.गुरु और इष्ट मे अविश्वास का जन्म कर देगे.

भगवान से भिक मांगना ये शिष्यो के कार्य नहि है.येसि अनुमति हमारे सदगुरुजी हमे नहि देते है..................................

’’ ब्रम्हांड से कह दो हमे भक्ति नहि साधना चाहिये ‘’ ये बात सद्गुरुजि ने कहि थि.....................

जिवन मे खूशिया सदगुरुजी कि क्रुपा आर्शिवाद से हि मिल सकति है. और उन्हिकि क्रुपा से मिलि है  अघोर भैरवी साधना ज्यो अत्यंत प्रभावि है और जिवन कि सारि बाधाओको दुर कर देति है दोषो सहित.

साधना सामग्री :-

कालि हकीक माला, मट्टि का दीपक , काले वस्त्र और आसन ,कपूर .

विधि :-

सर्वप्रथम स्नान करके साधना मे प्रवेश किजिये ,दक्षिण दिशा कि और मुख करते हुये साधना करनी है. अघोर भैरवी साधना से पूर्व हि गुरुपूजन एवँ गुरुमंत्र जाप और निखिल रक्षा कवच कि पाठ आवश्यक है.

मट्टि कि दीपक मे कपूर जलाये और अग्नि कि लौ को देखते हुये कालि हकिक माला से 9 मालाये जाप 8 दिन करनी आवश्यक है और 9 वे दिन हवन किजिये ( हवन मे आहुति के लिये काले तिल, लौंग, कालि मिर्च का हि उपयोग करे ) तभी साधना पूर्ण मानी जाति है ,यह साधना गुप्त नवरात्रि मे करनी है , किसि विशेष मनोकामना हेतु हम संकल्प ले सकते है.

मंत्र : -

॥ ॐ अघोरे ऎँ घोरे ह्रीँ सर्वत: सर्वसर्वेभ्यो घोरघोरतरे श्री नमस्तेस्तु रुद्ररुपेभ्य: क्लीँ सौ: नम: ॥

साधना समाप्ति के बाद माला को जल मे किसी भि काले वस्त्र मे एक नारियल और सुपारि कि साथ बान्धकर विसर्जित किजिये.और जिवन मे कोइ भि समस्या आये तो इसि दीपक मे थोडि कपूर जलाते हुये अपनि समस्या बोलकर थोडि मंत्रा जाप कर लिजिये किसी भि समय मे अनुकुलता प्राप्त होगि.

न्योच्छावर राशि "  

  अघोर भैरवी  यंत्र    कालि हकीक माला,  :  3100  -रुपये

विशेष चेतावनी

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उपरोक्त साधना पद्धति मात्र जानकारी के उद्देश्य से दिया जा रहा है |जैसा की शास्त्रों में ,किताबों में भैरवी की साधना दी हुई है ,हम भी ब्लॉग और पेज पर मात्र जानकारी देने के उद्देश्य से इसे प्रकाशित कर रहे हैं |

मात्र इस लेख के आधार पर साधना न करें |साधना पूर्व अपने गुरु से अनुमति लें और किसी सिद्ध काली साधक से सुरक्षा कवच बनवाकर जरुर धारण करें ,जो ऐसा हो की सुरक्षा भी करे औए पिशाचिनी के आगमन को रोके भी नहीं |

योग्य ग्यानी से समस्त प्रक्रिया और मंत्रादी समझ लें ,जांच लें |किसी भी हानि अथवा परेशानी के लिए हम जिम्मेदार नहीं होंगे |
धन्यवाद.

विशेष -

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राजगुरु जी

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Friday, November 15, 2019

श्री सूक्त के कुछ प्रयोग





श्री सूक्त के कुछ प्रयोग


“श्रीं ह्रीं क्लीं।।हिरण्य-वर्णा हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।। श्रीं ह्रीं क्लीं”

सुवर्ण से लक्ष्मी की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति का पूजन हल्दी और सुवर्ण-चाँदी के कमल-पुष्पों से करें। फिर सुवासिनी-सौभाग्यवती स्त्री और गाय का पूजन कर, पूर्णिमा के चन्द्र में अथवा पानी से भरे हुए कुम्भ में श्रीपरा-नारायणी का ध्यान कर, सोने की माला से कमल-पत्र के आसन पर बैठकर, ‘श्रीसूक्त’ की उक्त ‘हिरण्य-वर्णा॰॰’ ऋचा में ‘श्रीं ह्रीं क्लीं’ बीज जोड़कर प्रातः, दोपहर और सांय एक-एक हजार (१० माला) जप करे। इस प्रकार सवा लाख जप होने पर मधु और कमल-पुष्प से दशांश हवन करे और तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण-भोजन नियम से करे। 

इस प्रयोग का पुरश्चरण ३२ लाख जप का है। सवा लाख का जप, होम आदि हो जाने पर दूसरे सवा लाख का जप प्रारम्भ करे। ऐसे कुल २६ प्रयोग करने पर ३२ लाख का प्रयोग सम्पूर्ण होता है। 

इस प्रयोग का फल

 राज-वैभव, सुवर्ण, रत्न, वैभव, वाहन, स्त्री, सन्तान और सब प्रकार का सांसारिक सुख की प्राप्ति है।

“ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महा-लक्ष्म्यै नमः।। 

दुर्गे! स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।

ॐ ऐं हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।
दारिद्रय-दुःख-भय-हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽर्द्र-चित्ता।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महा-लक्ष्म्यै नमः।।” 

यह ‘श्रीसूक्त का एक मन्त्र सम्पुटित हुआ। इस प्रकार ‘तां म आवह′ से लेकर ‘यः शुचिः’ तक के १६ मन्त्रों को सम्पुटित कर पाठ करने से १ पाठ हुआ। ऐसे १२ हजार पाठ करे। चम्पा के फूल, शहद, घृत, गुड़ का दशांश हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। इस प्रयोग से धन-धान्य, ऐश्वर्य, समृद्धि, वचन-सिद्धि प्राप्त होती है। 

  “ॐ ऐं ॐ ह्रीं।। 

तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्। 

यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरुषानहम्।। 

ॐ ऐं ॐ ह्रीं ॥ ” 

सुवर्ण से लक्ष्मी की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति का पूजन हल्दी और सुवर्ण-चाँदी के कमल-पुष्पों से करें। फिर सुवासिनी-सौभाग्यवती स्त्री और गाय का पूजन कर, पूर्णिमा के चन्द्र में अथवा पानी से भरे हुए कुम्भ में श्रीपरा-नारायणी का ध्यान कर, सोने की माला से कमल-पत्र के आसन पर बैठकर, नित्य सांय-काल एक हजार (१० माला) जप करे। कुल ३२ दिन का प्रयोग है। दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। माँ लक्ष्मी स्वप्न में आकर धन के स्थान या धन-प्राप्ति के जो साधन अपने चित्त में होंगे, उनकी सफलता का मार्ग बताएँगी। धन-समृद्धि स्थिर रहेगी। प्रत्येक तीन वर्ष के अन्तराल में यह प्रयोग करे।

  “ॐ ह्रीं ॐ श्रीं।। 

अश्व-पूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम्। 

श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।। 

ॐ ह्रीं ॐ श्रीं” 

उक्त मन्त्र का प्रातः, मध्याह्न और सांय प्रत्येक काल १०-१० माला जप करे। संकल्प, न्यास, ध्यान कर जप प्रारम्भ करे। इस प्रकार ४ वर्ष करने से मन्त्र सिद्ध होता है। प्रयोग का पुरश्चरण ३६ लाख मन्त्र-जप का है। स्वयं न कर सके, तो विद्वान ब्राह्मणों द्वारा कराया जा सकता है। खोया हुआ या शत्रुओं द्वारा छिना हुआ धन प्राप्त होता है।

 “करोतु सा नः शुभ हेतुरीश्वरी, शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः। 

अश्व-पूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम्। 

श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।। 

करोतु सा नः शुभ हेतुरीश्वरी, शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः।।” 

उक्त आधे मन्त्र का सम्पुट कर १२ हजार जप करे। दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। इससे धन, ऐश्वर्य, यश बढ़ता है। शत्रु वश में होते हैं। खोई हुई लक्ष्मी, सम्पत्ति पुनः प्राप्त होती है।

 “ॐ श्रीं ॐ क्लीं।। 

कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। 

पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। ॐ श्रीं ॐ क्लीं” 

उक्त मन्त्र का पुरश्चरण आठ लाख जप का है। जप पूर्ण होने पर पलाश, ढाक की समिधा, दूध और गाय के घी से हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन, ब्रह्म-भोज करे। इस प्रयोग से सभी प्रकार की समृद्धि और श्रेय मिलता है। शत्रुओं का क्षय होता है।

 “सर्वा-बाधा-प्रशमनं, त्रैलोक्याखिलेश्वरि! 

एवमेव त्वया कार्यमस्मद्-वैरि-विनाशनम्।। 

कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। 

पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। 

सर्वा-बाधा-प्रशमनं, त्रैलोक्याखिलेश्वरि! एवमेव त्वया कार्यमस्मद्-वैरि-विनाशनम्।।” 

उक्त सम्पुट मन्त्र का १२ लाख जप करे। ब्राह्मण द्वारा भी कराया जा सकता है। इससे गत वैभव पुनः प्राप्त होता है और धन-धान्य-समृद्धि और श्रेय मिलता है। शत्रुओं का क्षय होता है।

 “ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं।। कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद महा-लक्ष्म्यै नमः।।
दुर्गे! स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।
दारिद्रय-दुःख-भय-हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽर्द्र-चित्ता।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं।।कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद महा-लक्ष्म्यै नमः।।”

उक्त प्रकार से सम्पुटित मन्त्र का १२ हजार जप करे। इस प्रयोग से वैभव, लक्ष्मी, सम्पत्ति, वाहन, घर, स्त्री, सन्तान का लाभ मिलता है।

 “ॐ क्लीं ॐ वद-वद।। 

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।।
ॐ क्लीं ॐ वद-वद।।” 

उक्त मन्त्र का संकल्प, न्यास, ध्यान कर एक लाख पैंतीस हजार जप करना चाहिए। गाय के गोबर से लिपे हुए स्थान पर बैठकर नित्य १००० जप करना चाहिए। यदि शीघ्र सिद्धि प्राप्त करना हो, तो तीनों काल एक-एक हजार जप करे या ब्राह्मणों से करावे। ४५ हजार पूर्ण होने पर दशांश हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। ध्यान इस प्रकार है- “अक्षीण-भासां चन्द्राखयां, ज्वलन्तीं यशसा श्रियम्। देव-जुष्टामुदारां च, पद्मिनीमीं भजाम्यहम्।।” इस प्रयोग से मनुष्य धनवान होता है।

 “ॐ वद वद वाग्वादिनि।।
आदित्य-वर्णे! तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।
ॐ वद वद वाग्वादिनि” 

देवी की स्वर्ण की प्रतिमा बनवाए। चन्दन, पुष्प, बिल्व-पत्र, हल्दी, कुमकुम से उसका पूजन कर एक से तीन हजार तक उक्त मन्त्र का जप करे। कुल ग्यारह लाख का प्रयोग है। जप पूर्ण होने पर बिल्व-पत्र, घी, खीर से दशांश होम, तर्पण, मार्जन, ब्रह्म-भोजन करे। यह प्रयोग ब्राह्मणों द्वारा भी कराया जा सकता है। ‘ऐं क्लीं सौः ऐं श्रीं’- इन बीजों से कर-न्यास और हृदयादि-न्यास करे। ध्यान इस प्रकार करे- “उदयादित्य-संकाशां, बिल्व-कानन-मध्यगाम्। तनु-मध्यां श्रियं ध्यायेदलक्ष्मी-परिहारिणीम्।।” प्रयोग-काल में फल और दूध का आहार करे। पकाया हुआ पदार्थ न खाए। पके हुए बिल्व-फल फलाहार में काए जा सकते हैं। यदि सम्भव हो तो बिल्व-वृक्ष के नीचे बैठकर जप करे। इस प्रयोग से वाक्-सिद्धि मिलती है और लक्ष्मी स्थिर रहती है।

 “ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय, महा-माया प्रयच्छति।।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजाते, वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु, मायान्तरा ताश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।
ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय, महा-माया प्रयच्छति।।” 

उक्त मन्त्र का १२००० जप कर दशांश होम, तर्पण करे। इस प्रयोग से जिस वस्तु की या जिस मनुष्य की इच्छा हो, उसका आकर्षण होता है और वह अपने वश में रहता है। राजा या राज्य-कर्ताओं को वश करने के लिए ४८००० जप करना चाहिए। 

चेतावनी - 

सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।

विशेष -

किसी विशिष्ट समस्या ,तंत्र -मंत्र -किये -कराये -काले जादू -अभिचार ,नकारात्मक ऊर्जा प्रभाव आदि पर परामर्श /समाधान हेतु संपर्क करें

   महायोगी  राजगुरु जी

तंत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष विज्ञान  अनुसंधान संस्थान

महाविद्या आश्रम (राजयोग पीठ )फॉउन्डेशन ट्रस्ट

 (रजि.)

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मोहन




मोहन


३॰ दृष्टि द्वारा मोहन करने का मन्त्र

“ॐ नमो भगवति, पुर-पुर वेशनि, सर्व-जगत-भयंकरि ह्रीं ह्रैं, ॐ रां रां रां क्लीं वालौ सः चव काम-बाण, सर्व-श्री समस्त नर-नारीणां मम वश्यं आनय आनय स्वाहा।”
विधिः- किसी भी सिद्ध योग में उक्त मन्त्र का १०००० जप करे। बाद में साधक अपने मुहँ पर हाथ फेरते हुए उक्त मन्त्र को १५ बार जपे। इससे साधक को सभी लोग मान-सम्मान से देखेंगे।

४॰ तेल अथवा इत्र से मोहन

क॰ “ॐ मोहना रानी-मोहना रानी चली सैर को, सिर पर धर तेल की दोहनी। जल मोहूँ थल मोहूँ, मोहूँ सब संसार। मोहना रानी पलँग चढ़ बैठी, मोह रहा दरबार। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। दुहाई गौरा-पार्वती की, दुहाई बजरंग बली की।

ख॰ “ॐ नमो मोहना रानी पलँग चढ़ बैठी, मोह रहा दरबार। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। दुहाई लोना चमारी की, दुहाई गौरा-पार्वती की। दुहाई बजरंग बली की।”

विधिः- 

‘दीपावली’ की रात में स्नानादिक कर पहले से स्वच्छ कमरे में ‘दीपक’ जलाए। सुगन्धबाला तेल या इत्र तैयार रखे। लोबान की धूनी दे। दीपक के पास पुष्प, मिठाई, इत्र इत्यादि रखकर दोनों में से किसी भी एक मन्त्र का २२ माला ‘जप’ करे। फिर लोबान की ७ आहुतियाँ मन्त्रोचार-सहित दे।

 इस प्रकार मन्त्र सिद्ध होगा तथा तेल या इत्र प्रभावशाली बन जाएगा। बाद में जब आवश्यकता हो, तब तेल या इत्र को ७ बार उक्त मन्त्र से अभीमन्त्रित कर स्वयं लगाए। ऐसा कर साधक जहाँ भी जाता है, वहाँ लोग उससे मोहित होते हैं। साधक को सूझ-बूझ से व्यवहार करना चाहिए। मन चाहे कार्य अवश्य पूरे होंगे।

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सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।

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Wednesday, November 13, 2019

तांत्रिक सिद्धि में कुंआरी कन्या क्यों?






तांत्रिक सिद्धि में कुंआरी कन्या क्यों?


तंत्र शास्त्र के बारे में बहुत-सी भ्रांतियां प्रचलित हैं। विशेषत: पचं 'मकार' साधना को लेकर, जिसमें मत्स्य, मदिरा, मुद्रा मैथुन आदि का वर्णन है। इसी कारण कुंआरी कन्या तथा मैथुन पर समय-समय पर आक्षेप लगते रहे हैं। 

वस्तुत: इन शब्दों का अर्थ शाब्दिक न होकर गुप्त था जिसमें कुंआरी कन्या का महत्व नारी में अंतरनिहित चुंबकीय शक्ति (मैग्नेटिक फोर्स) से था।

नारी जितना पुरुष के संसर्ग में आती है वह उतनी ही चुंबकीय शक्ति का क्षरण करती जाती है। चुंबकीय शक्ति ही आद्याशक्ति है जिसे अंतर्निहित करके काम शक्ति को आत्मशक्ति में परिवर्तित किया जाता है। यह शक्ति दो केंद्रों में विलीन होती है। 

प्रथमत: मूलाधार चक्र में, जहां से यह ऊर्जा जननेंद्रिय के मार्ग से नीचे प्रवाहित होकर प्रकृति में विलीन हो जाती है और यदि यही ऊर्जा भौंहों के मध्य स्‍थि‍त आज्ञा चक्र से जब ऊपर को प्रवाहित होती है तो सहस्रार स्‍थि‍त ब्रह्म से एकीकृत हो जाती है।

अत: कुंआरी कन्या का प्रयोग तांत्रिक उसकी शक्ति की सहायता से दैहिक सुख प्राप्त करने हेतु नहीं, ‍अपितु उसे भैरवी रूप में प्रतिष्ठित करके ब्रह्म से सायुज्य प्राप्त करने हेतु करता है।

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Tuesday, November 12, 2019

विभिन्न लग्नों के लिए राजयोग ग्रह





विभिन्न लग्नों के लिए राजयोग ग्रह


कुछ ग्रह लग्न कुंडली में अपनी स्थिति के अनुसार शुभ योग बनाते हैं जो व्यक्ति को धन, यश, मान, प्रतिष्ठा सारे सुख देते हैं। 

विभिन्न लग्नों के लिए राजयोगकारी ग्रह निम्न हैं। 

1. मेष लग्न के लिए गुरु राजयोग कारक होता है। 

2. वृषभ और तुला लग्न के लिए शनि राजयोग कारक होता है। 

3. कर्क लग्न और सिंह लग्न के लिए मंगल राजयोग कारक होता है। 

4. मिथुन लग्न के लिए शुक्र अच्छा फल देता है। 

5. वृश्चिक लग्न के लिए चंद्रमा अच्छा फल देता है। 

6. धनु लग्न के लिए मंगल राजयोग कारक है। 

7. मीन लग्न के लिए चंद्रमा व मंगल शुभ फल देते हैं। 

8. मकर लग्न के लिए शुक्र योगकारक होता है। तो कुंभ लग्न के लिए शुक्र और बुध अच्छा फल देते हैं। कन्या लग्न के लिए शुक्र नवमेश होकर अच्छा फल देता है। 

जो ग्रह एक साथ केंद्र व त्रिकोण के अधिपति होते हैं, वे राजयोगकारी होते हैं। ऐसा न होने पर पंचम व नवम के स्वामित्वों की गणना की जाती है। 

यदि कुंडली में ये ग्रह अशुभ स्थानों में हो, नीच के हो, पाप प्रभाव में हो तो उनके लिए उचित उपाय करना चाहिए  !!!!

और अधिक जानकारी समाधान उपाय विधि प्रयोग या ओरिजिनल रत्न की जानकारी या रत्न प्राप्ति के लिए या कुंडली विश्लेषण कुंडली बनवाने के लिए संपर्क करें 

जन्म  कुंडली  देखने और समाधान बताने  की 

दक्षिणा  -  201  मात्र .

Pytam नम्बर -  9958417249

विशेष

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चरपट नाथ प्रणीत - धूमावती साधना




चरपट नाथ प्रणीत -   धूमावती   साधना


धूमावती एक एसी महाविद्या है जिनके बारे मे साहित्य अत्यधिक कम मात्र मे मिलता है। इस महाविद्या के साधक भी बहोत कम मिलते है। मूल रूप से इनकी साधना शत्रु स्तम्भन और नाशन के लिए की जाती है।

 लेकिन इस महाविद्या से सबंधित कई ऐसे प्रयोग है जिनके बारे मे व्यक्ति कभी सोच भी नहीं सकता।

 चरपटभंजन नाम धूमावती के उच्चकोटि के साधको के मध्य प्रचलित रहा है, चरपट भंजन को ही चरपटनाथ या चरपटीनाथ कहा गया है। 

चरपटनाथ ने अपने जीवन काल मे धूमावती सबंधित साधनाओ का प्रचुर अभ्यास किया था और मांत्रिक धूमावती को सिद्ध करने वाले गिने चुने व्यक्ति मे इनकी गणना होती है, वे कालजयी रहे है और आज भी वे सदेह है। उनके बारे मे ये प्रचलित है की वह किसी भी तत्व मे अपने आप को बदल सकते है चाहे वह स्थूल हो या सूक्ष्म, जैसे मनुष्य पशु पक्षी पानी अग्नि या कुछ भी। 

750-800 साल पहले धूमावती साधना के सबंध मे फैली भ्रान्ति को दूर करने के लिए इस महान धूमावती साधक ने कई ग्रंथो की रचना की जिसमे धूमावतीरहस्य, धूमावतीसपर्या, धूमावती पूजा पध्धति जैसे अत्यधिक रोचक ग्रंथ सामिल है। कई गुप्त तांत्रिक मठो मे आज भी यह ग्रन्थ सुरक्षित है। 

लेकिन यह साधना पद्धतिया लुप्त हो गयी और जन सामान्य के मध्य कभी नहीं आई। धूमावती अलक्ष्मी होते हुए भी लक्ष्मी प्राप्ति से लेके वैभव ऐश्वर्य तथा जीवन के पूर्ण भोग प्राप्त करने के लिए भी धूमावती साधना के कई विधानों का उन्होंने प्रचार किया था। लेकिन ये साधनाओ को गुप्त रखने की पीछे का मूल चिंतन सायद तब की परिस्थिति हो या कुछ और लेकिन इससे जन सामान्य के मध्य साधको का हमेशा ही नुक्सान रहा है। 

चरपटभंजन ने जो कई गुप्त पध्धातियो का विकास किया था उनमे से एक साधना एसी भी थि जिसको करने से व्यक्ति अपने सामने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे मे कुछ भी जान लेता है। जैसे की चरित्र कैसा है, इस व्यक्ति की प्रकृति क्या है, इसके दिमाग मे इस वक्त कौनसे विचार चल रहे होंगे? 

इस प्रकार की साधना अत्यधिक दुस्कर है क्यों जीवन के रोज ब रोज के कार्य मे ऐसी साधनाओ से कितना और क्या विकास हो सकता है कैसे फायदा हो सकता है ये तो व्यक्ति खुद ही समज सकता है। मानसिक शक्तियो के विकास की अत्यधिक दुर्लभ साधनाओ मे यह साधना अपना एक विशेष स्थान लिए हुए है। चरपटनाथ द्वारा प्रणित धूमावती प्रयोग आप सब के मध्य रख रहा हू।

इस साधना को करने से पूर्व साधक अपने स्थान का चुनाव करे। साधक के साधना स्थल पर और आसान पर साधक की जब तक साधना चले कोई और व्यक्ति न बैठे। इस साधना मे साधक को 11 माला मंत्र जाप एक महीने (30 दिन) तक करना है। माला काले हकीक की रहे।

 वस्त्र काले रहे। समय रात्रि काल मे 11 बजे के बाद का हो। 

धूमावती का यन्त्र चित्र अपने सामने स्थापित करे। तेल का दीपक साधना समय मे जलते रहना चाहिए।

यन्त्र चित्र का पूजन कर के विनियोग करे

विनियोग:

 अस्य श्री चरपटभंजन प्रणित धूमावती प्रयोगस्य पूर्ण विनियोग अभीष्ट सिद्धियर्थे करिष्यमे पूर्ण सिद्धियर्थे विनियोग नमः

इसके बाद निम्न मंत्र का 11 माला जाप करे

ओम धूमावती करे न काम, तो अन्न हराम, जीवन तारो सुख संवारो, पुरती मम इच्छा, ऋणी दास तमारो ओम छू

मंत्र जाप के बाद साधक धूमावती देवी को ही मंत्र जाप समर्पित कर दे।

ये अत्यधिक दुर्लभ विधान सम्प्पन करने के बाद व्यक्ति यु कहा जाए की अजेय बन जाता है तो भी अतिशियोक्ति नहीं होगी।

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Sunday, November 10, 2019

महाविद्या






महाविद्या


महाविद्या अर्थात महान विद्या रूपी देवी। महाविद्या, देवी दुर्गा के दस रूप हैं, जो अधिकांश तान्त्रिक साधकों द्वारा पूजे जाते हैं, परन्तु साधारण भक्तों को भी अचूक सिद्धि प्रदान करने वाली है। इन्हें दस महाविद्या के नाम से भी जाना जाता है।

महाविद्या विचार का विकास शक्तिवाद के इतिहास में एक नया अध्याय बना जिसने इस विश्वास को पोषित किया कि सर्व शक्तिमान् एक नारी है।

शाब्दिक अर्थ

महाविद्या शब्द संस्कृत भाषा के शब्दों “महा” तथा “विद्या” से बना है।”महा” अर्थात महान्, विशाल, विराट। तथा “विद्या” अर्थात ज्ञान।

दस महाविद्याएँ

शाक्त भक्तों के अनुसार “दस रूपों में समाहित एक सत्य कि व्याख्या है – महाविद्या” जो कि जगदम्बा के दस लोकिक व्यक्तित्वों की व्याख्या करते है। महविद्याएँ तान्त्रिक प्रकृति की मानी जातीं हैं जो निम्न हैं-

काली
तारादेवी
ललिता-त्रिपुरसुन्दरी
भुवनेश्वरी
भैरवी
छिन्नमस्ता
धूमावती
बगलामुखी
मातन्गि
कमला

गुह्यतिगुह्य पुराण महाविद्याओं को भगवान विष्णु के दस अवतारों से सम्बद्ध करता है और यह व्याख्या करता है कि महाविद्या वे स्रोत है जिनसे भगवान विष्णु के दस अवतार उत्पन्न हुए थे। महाविद्याओं के ये दसों रूप चाहे वे भयानक हों अथवा सौम्य, जगज्जननी के रूप में पूजे जाते है।

पौराणिक कथा

श्री देवीभागवत पुराण के अनुसार महाविद्याओं की उत्पत्ति भगवान शिव और उनकी पत्नी सती, जो कि पार्वती का पूर्वजन्म थीं, के बीच एक विवाद के कारण हुई। जब शिव और सती का विवाह हुआ तो सती के पिता दक्ष प्रजापति दोनों के विवाह से खुश नहीं थे।

 उन्होंने शिव का अपमान करने के उद्देश्य से एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवताओं को आमन्त्रित किया, द्वेषवश उन्होंने अपने जामाता भगवान शंकर और अपनी पुत्री सती को निमन्त्रित नहीं किया। 

सती पिता के द्वार आयोजित यज्ञ में जाने की जिद करने लगीं जिसे शिव ने अनसुना कर दिया, जब तक कि सती ने स्वयं को एक भयानक रूप मे परिवर्तित (महाकाली का अवतार) कर लिया। 

जिसे एख भगवन शिव भागने को उद्यत हुए। अपने पति को डरा हुआ जानकर माता सती उन्हें रोकने लगी। तो शिव जिस दिशा में उस दिशा में माँ का विग्रह रोकता है।

 इस प्रकार दशो दिशाओं में माँ ने ओ रूप लिए थे वो ही दस महाविद्या कहलाई। तत्पश्चात् देवी दस रूपों में विभाजित हो गयी जिनसे वह शिव के विरोध को हराकर यज्ञ में भाग लेने गयीं। वहाँ पहुँचने के बाद माता सती एवं उनके पिता के बीच विवाद हुआ.

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Saturday, November 9, 2019

भैरव भैरवी लिंग योन तंत्र विद्या




भैरव भैरवी  लिंग योन तंत्र विद्या


भगवती उन्हें सद्बुद्धि दे जो योनि पूजा को हेय दृष्टि से देखते हैं ,उन्हें पता नहीं कि वह जननी शक्ति ,श्रृष्टि शक्ति को हेय दृष्टि से देख रहे हैं | महादेव उनपर कोप न करें जो योनि पूजा नहीं करते हैं ,वह नहीं जानते की इसके बिना कोई साधना पूर्ण नहीं है 

| भगवती और महादेव की अति कृपा है की उन्होंने हमें यह ज्ञान दिया और हम शक्ति साधक हुए |हमें गर्व है की हम योनिपूजक हैं ,हम भैरवी साधक हैं ,हम शक्ति साधक हैं और हम उनकी शक्ति से कुंडलिनी साधना मार्ग पर अग्रसर हो सके |इस हेतु हम उनके कृतज्ञ हैं

लिंग पूजा पूरे विश्व में होती है ,सभी बड़ी ख़ुशी से छू छू कर करते हैं , पर योनिपूजा के नाम पर नाक भौं सिकुड़ता है ,जबकि मूल उत्पत्ति कारक यही है |  इसे मूर्खता और छुद्र मानसिकता नहीं तो और क्या कहेंगे |

जो लोग काम भावना से परेशान हैं। कामुकता से पीड़ित हैं ।सदैव न चाहते हुए भी दिमाग इस ओर ही जाता है ।पूजा पाठ में भी भावना शुद्ध नहीं तह पाती ।कामुकता जगती है ।अपराधबोध उपजता है ।वह मुक्ति चाहते है ।साधना करना चाहते हैं ।

शक्ति पाना चाहते हैं ।उनके लिए भैरवी तंत्र मार्ग सर्वोत्तम है ।प्राकृतिक नियमो पर आधारित ऐसी साधना जो वह दे सकती है जो अन्य कोई साधना मुश्किल से दे पाती है ।काम उर्जा मोक्ष तक दिला सकती है ।

स्कन्द पुराण में भगवान् शिव ने ऋषि नारद को नाद ब्रह्म का ज्ञान दिया है और मनुष्य देह में स्थित चक्रों और आत्मज्योति रूपी परमात्मा के साक्षात्कार का मार्ग बताया है .स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीर प्रत्येक मनुष्य के अस्तित्व में हैं .

सूक्ष्म शारीर में मन और बुद्धि हैं .मन सदा संकल्प -विकल्प में लगा रहता है ;बुद्धि अपने लाभ के लिए मन के सुझावों को तर्क -वितर्क से विश्लेषण करती रहती है .कारण या लिंग शरीर ह्रदय में स्थित होता है जिसमें अहंकार और चित्त मंडल के रूप में दिखाई देते हैं .

अहंकार अपने को श्रेष्ठ और दूसरों के नीचा दिखने का प्रयास करता है और चित्त पिछले अनेक जन्मोंके घनीभूत अनुभवों,को संस्कार के रूप में संचित रखता है .आत्मा जो एक ज्योति है इससे परे है किन्तु आत्मा के निकलते ही स्थूल शरीर से सूक्ष्म और कारण शरीर अलग हो जाते हैं .कारण शरीर को लिंग शरीर भी कहा गया हैं क्योंकि इसमें निहित संस्कार ही आत्मा के अगले शरीर का निर्धारण करते हैं .

आत्मा से आकाश आकाश से वायु ;वायु से अग्नि 'अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति शिवजी ने बतायी है पिछले कर्म द्वारा प्रेरित जीव आत्मा, वीर्य जो की खाए गए भोजन का सूक्ष्मतम तत्व है, के र्रूप में परिणत हो कर माता के गर्भ में प्रवेश करता है जहाँ मान के स्वभाव के अनुसार उसके नए व्यक्तित्व का निर्माण होता ह. 

गर्भ में स्थित शिशु अपने हाथों से कानों को बंद करके अपने पूर्व कर्मों को याद करके पीड़ित होता और और अपने को धिक्कार कर गर्भ से मुक्त होने का प्रयास करता है .जन्म लेते ही बाहर की वायु का पान करते ही वह अपने पिछले संस्कार से युक्त होकर पुरानी स्मृतियों को भूल जाता है . 

शरीर में सात धातु हैं त्वचा ,रक्त ,मांस वसा ,हड्डी ,मज्जा और वीर्य(नर शरीर में ) या रज (नारी शरीर में ). देह में नो छिद्र हैं ,-दो कान ,दो नेत्र ,दो नासिका ,मुख ,गुदा और लिंग .स्त्री शरीर में दो स्तन और एक भग यानी गर्भ का छिद्र अतिरिक्त छिद्र हैं .

स्त्रियों में बीस पेशियाँ पुरुषों से अधिक होती हैं . उनके वक्ष में दस और भग में दस और पेशियाँ होती हैं .योनी में तीन चक्र होते हैं तीसरे चक्र में गर्भ शैय्या स्थित होती है .लाल रंग की पेशी वीर्य को जीवन देती है .शरीर में एक सो सात मर्म स्थान और तीन करोड़ पचास लाख रोम कूप होते हैं .जो व्यक्ति योग अभ्यास में निरत रहता है वह नाद ब्रह्म और तीनों लोकों को सुखपूर्वक जानता और भोगता है . 

मूल आधार           स्वाधिष्ठान ,मणिपूरक ,अनाहत ,विशुद्ध ,आज्ञा और सहस्त्रार नामक साथ ऊर्जा केंद्र शरीर में है जिन पर ध्यान का अभ्यास करने से देवीय शक्ति प्राप्त होती है .

सहस्रार में प्रकाश दीखने पर वहां से अमृत वर्षा का सा आनंद प्राप्त होता है जो मनुष्य शरीर की परम उपलब्धि है .जिसको अपने शरीर में दिव्य आनंद मिलने लगता है वह फिर चाहे भीड़ में रहे या अकेले में ;चाहे इन्द्रियों से विषयों को भोगे या आत्म ध्यान का अभ्यास करे उसे सदा परम आनंद और मोह से मुक्ति का अनुभव होता है .

 मनुष्य का शरीर अनु -परमाणुओं के संघटन से बना है . जिस तरह इलेक्ट्रौन,प्रोटोन ,सदा गति शील रहते हैं किन्तु प्रकाश एक ऊर्जा मात्र है जो कभी तरंग और कभी कण की तरह व्यवहार करता है उसी तरह आत्म सूर्य के प्रकाश से भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक है .

 यह इस तरह सिद्ध होता है की सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक आने में कुछ मिनट लगे हैं जब की मनुष्य उसे आँख खोलते ही देख लेता है .

अतः आत्मा प्रकाश से भी सूक्ष्म है जिसका अनुभव और दर्शन केवल ध्यान के माध्यम से होता है . जब तक मन उस आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर लेता उसे मोह से मुक्ति नहीं मिल सकती . 

मोह मनुष्य को भय भीत करता है क्योंकि जो पाया है उसके खोने का भय उसे सताता रहता है जबकि आत्म दर्शन से दिव्य प्रेम की अनुभूति होती है जो व्यक्ति को निर्भय करती है क्योंकि उसे सब के अस्तित्व में उसी दिव्य ज्योति का दर्शन होने लगता है |

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Bhairav ​​Bhairavi Lingo Yon Tantra Vidyalaya





Bhairav ​​Bhairavi Lingo Yon Tantra Vidyalaya


God bless them with understanding that they see vaginal worship in a very beautiful way, they do not know that they are seeing the power of power, the power of seeing them. Mahadev not rage those who do not worship the vagina, he does not know that no sadhana is complete without it

| Bhagavati and Mahadeva have great grace that they gave us this knowledge and we have become power seekers. We are proud that we are human beings, we are Bhaiyavi seekers, we are Shakti seekers and we can move on towards the path of Kundalini by their power. We are grateful to them

Ling worship is happening all over the world, all touches happily with touch, but the nose eyebrows in the name of the vagina, whereas the original origin factor is this. If it does not have a stupid and a heartless mindset then what else will you say?

People who are upset with work spirit. They are suffering from sexuality. Even without wanting, the mind goes on this side. Even in Pooja texts, the feeling is not pure. The goodness prevails. An illusion is born. They want liberation. They want to take care.

The Bhairavi system is the best way for them. Based on natural rules, such a sadhana which he can give can be done by any other sadhana. Work can give energy to liberation.

In Skanda Purana, Lord Shiva has given knowledge of Sada Naraad to Nad Brahma and the person is described as the path of interaction in the body of the chakras and self-realization in the body. The dust, subtle and causal bodies are in the existence of every human being.

There is a mind and intellect in the subtle body. The mind is always engaged in the resolution- option; the intellect continues to analyze the suggestions of the mind for its benefit, logic-based reason. The reason or sex body is located in the heart, in which the ego and mind appear as .

The ego tries to be superior to the others and the lowliness of others, and the mind preserves the dense experiences of past births as a ritual. The soul which is a light, is beyond it, but the soul comes out of the gross body with the subtle and causal body Because the body is also called the gender body because the implied sacrament in it determines the next body of the soul.

From the sky to the sky, the air from the sky, the fire from the air, the origin of the earth with water and water is explained by Shiva, the soul inspired by the last action, transforming into the form of semen which is the subtle element of the food that was eaten, Enters the womb where the new personality is created according to the nature of the mind.

The infant in the womb will lose her ear by closing the ears with her own hands and trying to get rid of her pregnancy by condemning herself. As soon as she drinks the outside air, she is accompanied by her last rites. By forgetting old memories.

There are seven metals in the body: skin, blood, meat fat, bone, marrow and semen (in the male body) or in the rays (female body). There are no holes in the body, two ears, two eyes, two nostrils, face, anus and sex. In the body, there are two breasts and a hole in the womb which has an extra hole.

In women, twenty muscles are more than men. There are ten more muscles in their chest and ten in the body. There are three chakras in the womb; In the third cycle, the womb lies in the bed. The red color gives life to the semen. There is a seven permanent place in the body and 30 million fifty thousand The follicles are follicles. The person who remains constant in yoga practice knows the sounds and spirit of the three worlds and enjoys it.

With the basic foundation Swadhishthan, Manipurak, Anahata, Pure, Command and Sahasar, the energy center is in the body, on whom the divine power is attained by practicing meditation.

On seeing the light in Sahasrara, there is a great joy of the nectar of rain, which is the ultimate achievement of the body. Those who find divine happiness in their body, whether they remain in the crowd or alone, whether they will accept subjects from the senses or the self Practicing meditation, he is experienced in eternal happiness and freedom from temptation.

 The human body is composed of anatomic composition. Just as electron, proton, are always modest, but the light is merely an energy that sometimes behaves like a wave and sometimes particle, in the same way the self is even more subtle and wider than the sun's light.

 It is proved in such a way that it takes only a few minutes for the sun to reach the Earth while the human being sees it as soon as the eye is opened.

So soul is subtle than light, whose experience and philosophy is only through meditation. Unless the mind is able to interview that soul, liberation can not be attained.

The fascination reveals fear to man, because the fear of losing her is haunted by her, whereas self-realization is the feeling of divine love that makes the person fearless, because in the existence of everyone, she starts seeing the same divine light.

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महा प्रचंड काल भैरव साधना विधि

  ।। महा प्रचंड काल भैरव साधना विधि ।। इस साधना से पूर्व गुरु दिक्षा, शरीर कीलन और आसन जाप अवश्य जपे और किसी भी हालत में जप पूर्ण होने से पह...