TRATAK SE DHYAN KI OR
योग शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर में नाड़ियों के गुच्छों के रूप में सात चक्र स्थापित हैं जिन्हें सुप्त अवस्था में रहने देना है या जागृत करके उनसे मिलने वाले लाभों से खुद के जीवन को संवारना है यह स्वत: हम पर निर्भर करता है....यह बात हर उस आम व्यक्ति पर लागू होती है जिसे साधनाओं से कोई लेना देना नहीं होता पर जो व्यक्ति अपने जीवन में साधनाएं करते हैं वो जानते हैं की इन चक्रों की उन्के साधनात्मक जीवन में क्या महत्ता है|
वैसे तो हर चक्र का अपना एक विशेष महत्व है पर हमारे भूमध्य में स्थित आज्ञाचक्र का हमारे साधनात्मक जीवन से बड़ा लेनादेना है और वो इसलिए क्योंकि यह चक्र हमारी आँखों के बिलकुल मध्य में स्थित है जहाँ तीसरा नेत्र स्थापित होता है और साधना में आप कितनी तल्लीनता से बैठे हैं या आपका ध्यान कितना भटक रहा है ये सारा खेल यहीं से शुरू होता है ....पर यदि आपको याद हो तो मन से संबंधित लेख में हमने एक बहुत गुढ़ तथ्य को समझा था की –
“ यदि भ्रम से बचना है तो भ्रम से होने वाले फायदों और नुक्सान को तिलांजली दे दो “
इस कथन का सरल सा अर्थ यह है की वो चीज़ जिसे आप जानते हो की नहीं है उसके पीछे भागना व्यर्थ है .....पर साधना के समय ऐसा नहीं हो पाता.....उस समय तो हमारी मानसिक स्थिति ऐसी होती है जैसे ईश्वर ने समस्त ब्रह्मांड का दायितत्व हमारे कंधो पर ड़ाल दिया हो और यह स्थिति तब तक ज्यों की त्यों रहती है जब तक हम साधना से उठ नहीं जाते, ऐसा होता है यह हम सब जानते हैं पर क्यों होता है इस पर यदा-कदा ही विचार करते हैं| पर असल में यह कभी-कभी नहीं बल्कि रोज विचारने वाला विषय है क्योंकि साधना या मंत्र जाप करने का अर्थ होता है की वो समय हमारा और हमारे इष्ट का है पर उस समय में भी अगर हम ज़माने भर की बातें सोच रहे हैं तो उससे अच्छा है हम आसन पर बैठे ही नहीं क्योंकि मात्र माला चला लेने से, या आँखें मूंद कर बैठ जाने से कोई भगवान कभी खुश नहीं होते ......और साधना में हमारी ऐसी दशा का कारण होता है हमारा मन ......क्योंकि
“ जो ज्ञानी होते है वो जानते हैं की मन ना तो भरोसेमंद मित्र है और ना ही आज्ञाकारी सेवक, हम इसे निर्देशित तो कर सकते हैं पर नियंत्रित कदापि नहीं “
.....पर जो सिद्ध सन्यासी होते हैं उनके साथ उनका मन ऐसा खेल कभी नहीं खेलता क्योंकि वो इस तथ्य से पूर्णतः परिचित होते हैं की असल में मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं....यह सिर्फ एक भ्रम है, छलावा है और अगर विज्ञान की दृष्टि से इस बात की पुष्टि की जाए तो आपको चिकित्सक कभी किसी ऐसे शारीरिक अंग के बारे में नहीं बताएंगे जिसका नाम “ मन “ हो क्योंकि ऐसा कुछ होता ही नहीं है|
हमारे मस्तिष्क से निकलने वाली एक विशेष प्रकार की ऊर्जा या यूँ कहें की तरंग को हमने मन का नाम दे दिया है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि ऊर्जा हमेशा तब तक अनियंत्रित रहती है जब तक आपको उसका सदुपयोग समझ में ना आ जाये| हमारे अंदर निरंतर बनने वाली ऊर्जा को नियंत्रण में करने के लिए पहले हमें इसके मूल को समझना पड़ेगा जहाँ से इस ऊर्जा का निर्माण होता है|
......हम शरीर में सत, रज, और तम तीनों गुण कम या अधिक अनुपात में मौजूद हैं और हमारे मन या विचारों की गति और कार्य करने की क्षमता इन तीनों गुणों से हमेशा प्रभावित होती है और जिस समय आपके अंदर जिस गुण की प्रधानता होगी उस समय मस्तिष्क से निकलने वाली ऊर्जा, जिसे हमने मन का संबोधन दिया है, उसी तरफ जायेगी क्योंकि यह एक प्राकृतिक नियम है की ऊर्जा का प्रवाह हमेशा शक्ति के घनत्व की तरफ ही होता है और यही कारण है की हम हमेशा एक जैसे काम कभी नहीं करते.....कभी हम साधू होते है तो कभी.....
साधना में मन या अपने विचारों को स्थिर रखने के लिए ध्यान मार्ग, योग मार्ग इत्यादि में हजारों तरीके बताए गए हैं पर उन सब विधियों से उपर अगर कोई शक्ति या क्रिया है जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर करती सकती है...तो वो हैं आप खुद हो क्योंकि आपको आपसे ज्यादा अच्छे से ओर कोई नहीं जानता| इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की आपने आज तक अपने विचारों को एकाग्र करने के लिए किन-किन नियमों का पालन किया है क्योंकि आपके द्वारा किये गए सारे क्रिया कलाप व्यर्थ हो जाते हैं जब तक आपकी आँखे स्थिर नहीं हो जाती ओर आँखों को स्थिर करने के लिए आपको खुद को थकाने की कोई जरूरत नहीं है....यदि किसी चीज़ की जरूरत है तो वो है खुद को दोष मुक्त करने की....
हम सब यह तो जानते हैं की मन या विचारों को नियंत्रित करना अत्यंत दुष्कर है....पर हमें यह तथ्य भी पता होना चाहिए की चेतना कभी मलीन या दूषित नहीं होती, ये तो हमारी आत्मा की एक तरंग है जिसे हमें बस सही दिशा दिखानी होती है और इस चेतना को हम सही दिशा तभी दिखा पायेंगे जब हमें इसका सही मार्ग पता हो| हठयोग में ६ तरह की अलग – अलग क्रियाएँ बताई गयी हैं
जिनमें से त्राटक को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह हमारी मानसिक शान्ति के साथ-साथ आध्यात्मिक शक्ति को भी बढ़ाता है|
हमारे मस्तिष्क में तरंगों के रूप में विचार हमेशा आते-जाते रहते हैं पर जब हम त्राटक का अभ्यास करते हैं तो इन विचारों के आने जाने से शतिग्र्स्त होने वाली ऊर्जा का ७० प्रतिशत हम पुन्ह: प्राप्त कर लेते हैं और वो इसलिए क्योंकि अब हमारी दौड़ विचारों को पकड़ने की ना होकर आँखों को स्थिर करने की है और यदि आप कोशिश करेंगे तो आप जानेंगे की विचारों की तुलना में आँखों की पुतलियों को स्थिर करना ज्यादा सहज भी है और कारागार भी| और यह एक बार नहीं हजारों बार अनुभूत की गयी क्रिया है की जैसे ही आपकी आँखों की पुतलियाँ स्थिर होती हैं...आपका मन भी आपके नियंत्रण में आ जाता है और इसका पता हमें चलता है शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु के स्थिर हो जाने से|
त्राटक दो तरीकों से किया जा सकता है-
१) बाह्य त्राटक
२) आंतरिक त्राटक
बाह्य त्राटक में आपको अपना ध्यान शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु पर केंद्रित करना होता है जिससे आध्यात्मिक स्तर पर आप अपने विचारों पर नियंत्रण करने की कला सीखते हो और भौतिक स्तर पर आपकी आँखों में स्वत: ही किसी को भी सम्मोहित करने की क्षमता पैदा हो जाती है|
आंतरिक त्राटक में आपको अपने आज्ञाचक्र पर ध्यान केंद्रित करना होता है....और इस क्रिया में आपको अपनी आँखों की पुतलियों को भूमध्य में केंद्रित करना पड़ता है जिससे शुरूआती दिनों में थोड़ा दर्द हो सकता है| इस त्राटक को सफलतापूर्वक करने से जहाँ आपके आज्ञाचक्र में स्पंदन होना शुरू हो जाता है.....वहीँ आप काल विखंडन साधना को करने की पात्रता भी अर्जित कर लेते हो|
भौतिक स्तर पर त्राटक का नियमित अभ्यास आपके सोचने, समझने की क्षमता को कई गुना बढ़ा देता है और आपने अंदर नाकारात्मक ऊर्जा को नष्ट भी करता है.....बस आपको एक बात हमेशा ध्यान में रखनी है की आप जब भी त्राटक का अभ्यास करो तो आपके चारों तरफ शान्ति हो और इसीलिए सुबह का समय इसके लिए सबसे श्रेष्ठ माना जाता है|
यहाँ दिया गया मंत्र त्राटक की इस क्रिया में शीघ्रातिशीघ्र सफल होने में आपकी सहायता करेगा पर मंत्र अपना काम तभी दक्षता से करेगा जब आप नियमित रूप से इस क्रिया का अभ्यास करेंगे वो भी बस १० से १५ मिनट तक| आपको मात्र शांत बैठ कर सदगुरुदेव प्रदत्त निम्न मंत्र का १०-१५ मिनट गुंजरन करना है.ये सुषुम्ना को जाग्रत कर आपके लक्ष्य प्राप्ति को सरल और सुगम कर देता है.
ॐ क्लीं क्लीं क्रीं क्रीं हुं हुं फट् ||
(OM KLEEM KLEEM KREEM KREEM HUM HUM PHAT)
राजगुरु जी
महाविद्या आश्रम
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योग शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर में नाड़ियों के गुच्छों के रूप में सात चक्र स्थापित हैं जिन्हें सुप्त अवस्था में रहने देना है या जागृत करके उनसे मिलने वाले लाभों से खुद के जीवन को संवारना है यह स्वत: हम पर निर्भर करता है....यह बात हर उस आम व्यक्ति पर लागू होती है जिसे साधनाओं से कोई लेना देना नहीं होता पर जो व्यक्ति अपने जीवन में साधनाएं करते हैं वो जानते हैं की इन चक्रों की उन्के साधनात्मक जीवन में क्या महत्ता है|
वैसे तो हर चक्र का अपना एक विशेष महत्व है पर हमारे भूमध्य में स्थित आज्ञाचक्र का हमारे साधनात्मक जीवन से बड़ा लेनादेना है और वो इसलिए क्योंकि यह चक्र हमारी आँखों के बिलकुल मध्य में स्थित है जहाँ तीसरा नेत्र स्थापित होता है और साधना में आप कितनी तल्लीनता से बैठे हैं या आपका ध्यान कितना भटक रहा है ये सारा खेल यहीं से शुरू होता है ....पर यदि आपको याद हो तो मन से संबंधित लेख में हमने एक बहुत गुढ़ तथ्य को समझा था की –
“ यदि भ्रम से बचना है तो भ्रम से होने वाले फायदों और नुक्सान को तिलांजली दे दो “
इस कथन का सरल सा अर्थ यह है की वो चीज़ जिसे आप जानते हो की नहीं है उसके पीछे भागना व्यर्थ है .....पर साधना के समय ऐसा नहीं हो पाता.....उस समय तो हमारी मानसिक स्थिति ऐसी होती है जैसे ईश्वर ने समस्त ब्रह्मांड का दायितत्व हमारे कंधो पर ड़ाल दिया हो और यह स्थिति तब तक ज्यों की त्यों रहती है जब तक हम साधना से उठ नहीं जाते, ऐसा होता है यह हम सब जानते हैं पर क्यों होता है इस पर यदा-कदा ही विचार करते हैं| पर असल में यह कभी-कभी नहीं बल्कि रोज विचारने वाला विषय है क्योंकि साधना या मंत्र जाप करने का अर्थ होता है की वो समय हमारा और हमारे इष्ट का है पर उस समय में भी अगर हम ज़माने भर की बातें सोच रहे हैं तो उससे अच्छा है हम आसन पर बैठे ही नहीं क्योंकि मात्र माला चला लेने से, या आँखें मूंद कर बैठ जाने से कोई भगवान कभी खुश नहीं होते ......और साधना में हमारी ऐसी दशा का कारण होता है हमारा मन ......क्योंकि
“ जो ज्ञानी होते है वो जानते हैं की मन ना तो भरोसेमंद मित्र है और ना ही आज्ञाकारी सेवक, हम इसे निर्देशित तो कर सकते हैं पर नियंत्रित कदापि नहीं “
.....पर जो सिद्ध सन्यासी होते हैं उनके साथ उनका मन ऐसा खेल कभी नहीं खेलता क्योंकि वो इस तथ्य से पूर्णतः परिचित होते हैं की असल में मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं....यह सिर्फ एक भ्रम है, छलावा है और अगर विज्ञान की दृष्टि से इस बात की पुष्टि की जाए तो आपको चिकित्सक कभी किसी ऐसे शारीरिक अंग के बारे में नहीं बताएंगे जिसका नाम “ मन “ हो क्योंकि ऐसा कुछ होता ही नहीं है|
हमारे मस्तिष्क से निकलने वाली एक विशेष प्रकार की ऊर्जा या यूँ कहें की तरंग को हमने मन का नाम दे दिया है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि ऊर्जा हमेशा तब तक अनियंत्रित रहती है जब तक आपको उसका सदुपयोग समझ में ना आ जाये| हमारे अंदर निरंतर बनने वाली ऊर्जा को नियंत्रण में करने के लिए पहले हमें इसके मूल को समझना पड़ेगा जहाँ से इस ऊर्जा का निर्माण होता है|
......हम शरीर में सत, रज, और तम तीनों गुण कम या अधिक अनुपात में मौजूद हैं और हमारे मन या विचारों की गति और कार्य करने की क्षमता इन तीनों गुणों से हमेशा प्रभावित होती है और जिस समय आपके अंदर जिस गुण की प्रधानता होगी उस समय मस्तिष्क से निकलने वाली ऊर्जा, जिसे हमने मन का संबोधन दिया है, उसी तरफ जायेगी क्योंकि यह एक प्राकृतिक नियम है की ऊर्जा का प्रवाह हमेशा शक्ति के घनत्व की तरफ ही होता है और यही कारण है की हम हमेशा एक जैसे काम कभी नहीं करते.....कभी हम साधू होते है तो कभी.....
साधना में मन या अपने विचारों को स्थिर रखने के लिए ध्यान मार्ग, योग मार्ग इत्यादि में हजारों तरीके बताए गए हैं पर उन सब विधियों से उपर अगर कोई शक्ति या क्रिया है जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर करती सकती है...तो वो हैं आप खुद हो क्योंकि आपको आपसे ज्यादा अच्छे से ओर कोई नहीं जानता| इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की आपने आज तक अपने विचारों को एकाग्र करने के लिए किन-किन नियमों का पालन किया है क्योंकि आपके द्वारा किये गए सारे क्रिया कलाप व्यर्थ हो जाते हैं जब तक आपकी आँखे स्थिर नहीं हो जाती ओर आँखों को स्थिर करने के लिए आपको खुद को थकाने की कोई जरूरत नहीं है....यदि किसी चीज़ की जरूरत है तो वो है खुद को दोष मुक्त करने की....
हम सब यह तो जानते हैं की मन या विचारों को नियंत्रित करना अत्यंत दुष्कर है....पर हमें यह तथ्य भी पता होना चाहिए की चेतना कभी मलीन या दूषित नहीं होती, ये तो हमारी आत्मा की एक तरंग है जिसे हमें बस सही दिशा दिखानी होती है और इस चेतना को हम सही दिशा तभी दिखा पायेंगे जब हमें इसका सही मार्ग पता हो| हठयोग में ६ तरह की अलग – अलग क्रियाएँ बताई गयी हैं
जिनमें से त्राटक को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह हमारी मानसिक शान्ति के साथ-साथ आध्यात्मिक शक्ति को भी बढ़ाता है|
हमारे मस्तिष्क में तरंगों के रूप में विचार हमेशा आते-जाते रहते हैं पर जब हम त्राटक का अभ्यास करते हैं तो इन विचारों के आने जाने से शतिग्र्स्त होने वाली ऊर्जा का ७० प्रतिशत हम पुन्ह: प्राप्त कर लेते हैं और वो इसलिए क्योंकि अब हमारी दौड़ विचारों को पकड़ने की ना होकर आँखों को स्थिर करने की है और यदि आप कोशिश करेंगे तो आप जानेंगे की विचारों की तुलना में आँखों की पुतलियों को स्थिर करना ज्यादा सहज भी है और कारागार भी| और यह एक बार नहीं हजारों बार अनुभूत की गयी क्रिया है की जैसे ही आपकी आँखों की पुतलियाँ स्थिर होती हैं...आपका मन भी आपके नियंत्रण में आ जाता है और इसका पता हमें चलता है शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु के स्थिर हो जाने से|
त्राटक दो तरीकों से किया जा सकता है-
१) बाह्य त्राटक
२) आंतरिक त्राटक
बाह्य त्राटक में आपको अपना ध्यान शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु पर केंद्रित करना होता है जिससे आध्यात्मिक स्तर पर आप अपने विचारों पर नियंत्रण करने की कला सीखते हो और भौतिक स्तर पर आपकी आँखों में स्वत: ही किसी को भी सम्मोहित करने की क्षमता पैदा हो जाती है|
आंतरिक त्राटक में आपको अपने आज्ञाचक्र पर ध्यान केंद्रित करना होता है....और इस क्रिया में आपको अपनी आँखों की पुतलियों को भूमध्य में केंद्रित करना पड़ता है जिससे शुरूआती दिनों में थोड़ा दर्द हो सकता है| इस त्राटक को सफलतापूर्वक करने से जहाँ आपके आज्ञाचक्र में स्पंदन होना शुरू हो जाता है.....वहीँ आप काल विखंडन साधना को करने की पात्रता भी अर्जित कर लेते हो|
भौतिक स्तर पर त्राटक का नियमित अभ्यास आपके सोचने, समझने की क्षमता को कई गुना बढ़ा देता है और आपने अंदर नाकारात्मक ऊर्जा को नष्ट भी करता है.....बस आपको एक बात हमेशा ध्यान में रखनी है की आप जब भी त्राटक का अभ्यास करो तो आपके चारों तरफ शान्ति हो और इसीलिए सुबह का समय इसके लिए सबसे श्रेष्ठ माना जाता है|
यहाँ दिया गया मंत्र त्राटक की इस क्रिया में शीघ्रातिशीघ्र सफल होने में आपकी सहायता करेगा पर मंत्र अपना काम तभी दक्षता से करेगा जब आप नियमित रूप से इस क्रिया का अभ्यास करेंगे वो भी बस १० से १५ मिनट तक| आपको मात्र शांत बैठ कर सदगुरुदेव प्रदत्त निम्न मंत्र का १०-१५ मिनट गुंजरन करना है.ये सुषुम्ना को जाग्रत कर आपके लक्ष्य प्राप्ति को सरल और सुगम कर देता है.
ॐ क्लीं क्लीं क्रीं क्रीं हुं हुं फट् ||
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राजगुरु जी
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