Monday, February 15, 2021

बगलामुखी देवी


 






बगलामुखी देवी


दश महाविद्याओं में आठवीं महाविद्या का नाम से उल्लेखित है । वैदिक शब्द ‘वल्गा’ कहा है, जिसका अर्थ कृत्या सम्बन्ध है, जो बाद में अपभ्रंश होकर बगला नाम से प्रचारित हो गया । बगलामुखी शत्रु-संहारक विशेष है अतः इसके दक्षिणाम्नायी पश्चिमाम्नायी मंत्र अधिक मिलते हैं ।


 नैऋत्य व पश्चिमाम्नायी मंत्र प्रबल संहारक व शत्रु को पीड़ा कारक होते हैं । इसलिये इसका प्रयोग करते समय व्यक्ति घबराते हैं । वास्तव में इसके प्रयोग में सावधानी बरतनी चाहिये ।


 ऐसी बात नहीं है कि यह विद्या शत्रु-संहारक ही है, ध्यान योग में इससे विशेष सहयता मिलती है । यह विद्या प्राण-वायु व मन की चंचलता का स्तंभन कर ऊर्ध्व-गति देती है, इस विद्या के मंत्र के साथ ललितादि विद्याओं के कूट मंत्र मिलाकर भी साधना की जाती है ।


 बगलामुखी मंत्रों के साथ ललिता, काली व लक्ष्मी मंत्रों से पुटित कर व पदभेद करके प्रयोग में लाये जा सकते हैं । इस विद्या के ऊर्ध्व-आम्नाय व उभय आम्नाय मंत्र भी हैं, जिनका ध्यान योग से ही विशेष सम्बन्ध रहता है । त्रिपुर सुन्दरी के कूट मन्त्रों के मिलाने से यह विद्या बगलासुन्दरी हो जाती है, जो शत्रु-नाश भी करती है तथा वैभव भी देती है ।


महर्षि च्यवन ने इसी विद्या के प्रभाव से इन्द्र के वज्र को स्तम्भित कर दिया था । आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने गुरु श्रीमद्-गोविन्दपाद की समाधि में विघ्न डालने पर रेवा नदी का स्तम्भन इसी विद्या के प्रभाव से किया था ।


 महामुनि निम्बार्क ने एक परिव्राजक को नीम के वृक्ष पर सूर्य के दर्शन इसी विद्या के प्रभाव से कराए थे । इसी विद्या के कारण ब्रह्मा जी सृष्टि की संरचना में सफल हुए ।

श्री बगला शक्ति कोई तामसिक शक्ति नहीं है, बल्कि आभिचारिक कृत्यों से रक्षा ही इसकी प्रधानता है । इस संसार में जितने भी तरह के दुःख और उत्पात हैं, उनसे रक्षा के लिए इसी शक्ति की उपासना करना श्रेष्ठ होता है । 


शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिन संहिता के पाँचवें अध्याय की २३, २४ एवं २५वीं कण्डिकाओं में अभिचारकर्म की निवृत्ति में श्रीबगलामुखी को ही सर्वोत्तम बताया है । शत्रु विनाश के लिए जो कृत्या विशेष को भूमि में गाड़ देते हैं, उन्हें नष्ट करने वाली महा-शक्ति श्रीबगलामुखी ही है ।

त्रयीसिद्ध विद्याओं में आपका पहला स्थान है ।


 आवश्यकता में शुचि-अशुचि अवस्था में भी इसके प्रयोग का सहारा लेना पड़े तो शुद्धमन से स्मरण करने पर भगवती सहायता करती है । लक्ष्मी-प्राप्ति व शत्रुनाश उभय कामना मंत्रों का प्रयोग भी सफलता से किया जा सकता है ।


देवी को वीर-रात्रि भी कहा जाता है, क्योंकि देवी स्वम् ब्रह्मास्त्र-रूपिणी हैं, इनके शिव को एकवक्त्र-महारुद्र तथा मृत्युञ्जय-महादेव कहा जाता है, इसीलिए देवी सिद्ध-विद्या कहा जाता है । 


विष्णु भगवान् श्री कूर्म हैं तथा ये मंगल ग्रह से सम्बन्धित मानी गयी हैं ।


शत्रु व राजकीय विवाद, मुकदमेबाजी में विद्या शीघ्र-सिद्धि-प्रदा है । शत्रु के द्वारा कृत्या अभिचार किया गया हो, प्रेतादिक उपद्रव हो, तो उक्त विद्या का प्रयोग करना चाहिये । यदि शत्रु का प्रयोग या प्रेतोपद्रव भारी हो, तो मंत्र क्रम में निम्न विघ्न बन सकते हैं –


१॰ जप नियम पूर्वक नहीं हो सकेंगे ।


२॰ मंत्र जप में समय अधिक लगेगा, जिह्वा भारी होने लगेगी ।


३॰ मंत्र में जहाँ “जिह्वां कीलय” शब्द आता है, उस समय स्वयं की जिह्वा पर संबोधन भाव आने लगेगा, उससे स्वयं पर ही मंत्र का कुप्रभाव पड़ेगा ।


४॰ ‘बुद्धिं विनाशय’ पर परिभाषा का अर्थ मन में स्वयं पर आने लगेगा ।


सावधानियाँ –


१॰ ऐसे समय में तारा मंत्र पुटित बगलामुखी मंत्र प्रयोग में लेवें, अथवा कालरात्रि देवी का मंत्र व काली अथवा प्रत्यंगिरा मंत्र पुटित करें । तथा कवच मंत्रों का स्मरण करें । सरस्वती विद्या का स्मरण करें अथवा गायत्री मंत्र साथ में करें ।


२॰ बगलामुखी मंत्र में


 “ॐ ह्ल्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाश ह्ल्रीं ॐ स्वाहा ।” 


इस मंत्र में ‘सर्वदुष्टानां’ शब्द से आशय शत्रु को मानते हुए ध्यान-पूर्वक आगे का मंत्र पढ़ें ।


३॰ यही संपूर्ण मंत्र जप समय ‘सर्वदुष्टानां’ की जगह काम, क्रोध, लोभादि शत्रु एवं विघ्नों का ध्यान करें तथा ‘वाचं मुखं …….. जिह्वां कीलय’ के समय देवी के बाँयें हाथ में शत्रु की जिह्वा है तथा ‘बुद्धिं विनाशय’ के समय देवी शत्रु को पाशबद्ध कर मुद्गर से उसके मस्तिष्क पर प्रहार कर रही है, ऐसी भावना करें ।


४॰ बगलामुखी के अन्य उग्र-प्रयोग वडवामुखी, उल्कामुखी, ज्वालामुखी, भानुमुखी, वृहद्-भानुमुखी, जातवेदमुखी इत्यादि तंत्र ग्रथों में वर्णित है । समय व परिस्थिति के अनुसार प्रयोग करना चाहिये ।


५॰ बगला प्रयोग के साथ भैरव, पक्षिराज, धूमावती विद्या का ज्ञान व प्रयोग करना चाहिये ।


६॰ बगलामुखी उपासना पीले वस्त्र पहनकर, पीले आसन पर बैठकर करें । गंधार्चन में केसर व हल्दी का प्रयोग करें, स्वयं के पीला तिलक लगायें । दीप-वर्तिका पीली बनायें । पीत-पुष्प चढ़ायें, पीला नैवेद्य चढ़ावें । हल्दी से बनी हुई माला से जप करें । अभाव में रुद्राक्ष माला से जप करें या सफेद चन्दन की माला को पीली कर लेवें । तुलसी की माला पर जप नहीं करें ।


।। बगला उत्पत्ति ।।


एक बार समुद्र में राक्षस ने बहुत बड़ा प्रलय मचाया, विष्णु उसका संहार नहीं कर सके तो उन्होंने सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप महा-त्रिपुर-सुन्दरी की आराधना की तो श्रीविद्या ने ही ‘बगला’ रुप में प्रकट होकर राक्षस का वध किया । मंगलवार युक्त चतुर्दशी, मकर-कुल नक्षत्रों से युक्त वीर-रात्रि कही जाती है । इसी अर्द्ध-रात्रि में श्री बगला का आविर्भाव हुआ था ।


 मकर-कुल नक्षत्र – भरणी, रोहिणी, पुष्य, मघा, उत्तरा-फाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण तथा उत्तर-भाद्रपद नक्षत्र है ।


।। बगला उपासनायां उपयोगी कुल्कुलादि साधना ।।


बगला उपासना व दश महाविद्याओं में मंत्र जाग्रति हेतु शापोद्धार मंत्र, सेतु, महासेतु, कुल्कुलादि मंत्र का जप करना जरुरी है । 


अतः उनकी संक्षिप्त जानकारी व अन्य विषय साधकों के लिये आवश्यक है ।


नाम – बगलामुखी, पीताम्बरा, ब्रह्मास्त्र-विद्या ।


आम्नाय – मुख आम्नाय दक्षिणाम्नाय हैं इसके उत्तर, ऊर्ध्व व उभयाम्नाय मंत्र भी हैं ।


आचार – इस विद्या का वामाचार क्रम मुख्य है, दक्षिणाचार भी है ।


कुल – यह श्रीकुल की अंग-विद्या है ।


शिव – इस विद्या के त्र्यंबक शिव हैं ।


भैरव – आनन्द भैरव हैं । कई विद्वान आनन्द भैरव को प्रमुख शिव व त्र्यंबक को भैरव बताते हैं ।


गणेश – इस विद्या के हरिद्रा-गणपति मुख्य गणेश हैं । स्वर्णाकर्षण भैरव का प्रयोग भी उपयुक्त है ।


यक्षिणी – विडालिका यक्षिणी का मेरु-तंत्र में विधान है ।


 प्रयोग हेतु अंग-विद्यायें -मृत्युञ्जय, बटुक, आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, पार्जन्यास्त्र, संमोहनास्त्र, पाशुपतास्त्र, कुल्लुका, तारा स्वप्नेश्वरी, वाराही मंत्र की उपासना करनी चाहिये ।


कुल्लुका – “ॐ क्ष्रौं” अथवा “ॐ हूँ क्षौं” शिर में १० बार जप करना ।


सेतु – कण्ठ में १० बार “ह्रीं” मंत्र का जप करें ।


महासेतु – “स्त्रीं” इसका हृदय में १० बार जप करें ।


निर्वाण – हूं, ह्रीं श्रीं से संपुटित करे एवं मंत्र जप करें ।


 दीपन पुरश्चरण आदि में “ईं” से सम्पुटित मंत्र का जप करें ।


जीवन – मूल मंत्र के अंत में ” ह्रीं ओं स्वाहा” १० बार जपे । नित्य आवश्यक नहीं है ।


मुख-शोधन – (दातून) करने के बाद “हं ह्रीं ऐं”


 जलसंकेत से जिह्वा पर अनामिका से लिखें एवं १० बार मंत्र जप करें ।


शापोद्धार – “ॐ ह्लीं बगले रुद्रशायं विमोचय विमोचय ॐ ह्लीं स्वाहा” १० बार जपे ।


उत्कीलन – “ॐ ह्लीं स्वाहा” मंत्र के आदि में १० बार जपे ………


चेतावनी -


सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।


विशेष -


किसी विशिष्ट समस्या ,तंत्र -मंत्र -किये -कराये -काले जादू -अभिचार ,नकारात्मक ऊर्जा प्रभाव आदि पर परामर्श /समाधान हेतु संपर्क करें


महायोगी  राजगुरु जी  《  अघोरी  रामजी  》


तंत्र मंत्र यंत्र ज्योतिष विज्ञान  अनुसंधान संस्थान


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